उदयपुर में हाईकोर्ट आंदोलन को लगभग 45 साल होने आए हैं। इस दौरान वकीलों ने बार-बार उदयपुर और उसके आस-पास के आदिवासी अंचल के लोगों को न्याय दिलाने के लिए पुरजोर पैरवी की। कई बार महीनों तक आंदोलन करते हुए बंद रखा। उसके बाद कालांतर में क्रमिक आंदोलन करते हुए आंदोलन की आंच को लगातार जारी रखा मगर ना तो केंद्र सरकार पर कोई फर्क पड़ा ना ही राज्य सरकार के स्तर पर इसकी ठोस पैरवी हुई। स्पष्ट कारण है कि कोई भी संसाधनों का बंटवारा नहीं चाहता है क्योंकि इसमें तर्क दिया जाता है कि आर्थिक बंटवारा भी हो जाएगा। कभी जोधपुर की लॉबी की बात होती है तो कभी जयपुर और दिल्ली की लॉबी की। मगर सच इन सबके बीच कहीं फंस जाता है और हर बार उदयपुर ठगा का ठगा रह जाता है। आंदोलन के इन बरसों में कई बार ऐसा लगा कि अब निर्णायक मोड़ आने ही वाला है मगर हर बर धोखे की मीठी गोली से ही संतोष करना पड़ा। कुछ लोग इसके लिए स्थानीय स्तर पर अधिवक्ताओं के नेतृत्व पर सवाल उठाते हैं लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। अधिवक्ताओं ने खुद तप, त्याग और संघर्ष के साथ आंदोलन में आहुतियां दीं हैं। जब-जब हाईकोर्ट की बात होती है, वकील सभी प्रकार के मतभेद भुला कर एक हो जाते हैं और जनहित को देखते हुए आंदोलन का झंडा थाम लेते हैं। अधिवक्ताओं ने उदयपुर से लेकर दिल्ली तक अपनी आवाज को गूंजाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है लेकिन बात तब भी नहीं बनी। अब कुछ समय पहले जब वर्चुअल बैंच की बात आई तो उम्मीदों का नया सूरज उगा। लगने लगा कि इस बार तो कुछ न कुछ मिल ही जाएगा। बीकानेर में कानून मंत्री ने घोषणा की तो उदयपुर के अधिवक्ताओं ने भी संभागभर में अलख जगाते हुए माहौल बनाया और प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली में जाकर मंत्रीजी के समक्ष अपनी बात रखी। मंत्रीजी ने भी तत्काल घोषणा कर दी कि उदयपुर को वर्चुअल बैंच दी जाएगी। मंत्रीजी के इस बयान के सहारे विधानसभा चुनाव निपट गया। मगर ना तो चुनवों के दौरान किसी पार्टी ने इसे मुद्दा बनाया ना ही इस पर बात आगे बढ़ी। नई भाजपा सरकार बनने के बाद लगने लगा कि वर्चुअल बैंच बस कुछ ही दिनों की बात है। मगर अचानक जोधपुर में हुए समारोह में सीजेआई के हाथों में कानून मंत्री की ओर से एक पर्ची पहुंचाई गई और उस पर्ची के जरिये बीकानेर का वर्चुअल बैंच की सौगात मिल गई। मेवाड़-वागड़ हाथ मलते ही रह गया। अब इसे आक्रोषित वकील समुदाय धोखा बता रहा है लेकिन जानकारों को पहले ही यह संदेह था व मंत्रीजी की दिल्ली में घोषणा के बाद भी उस दिशा में कोई कदम नहीं उठता देख कर यह पक्का हो गया था कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काल है और खिचड़ी कुछ और ही पक रही है। अब उदयपुर के नाम की पर्ची कब खुलेगी, इसके लिए फिर से कितना संघर्ष करना होगा और कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे। यहां के राजनेता क्या उच्च स्तर तक जिद करके अपनी बात मनवा पाएंगे और वर्चुअल बैंच के सपने को लोकसभा चुनाव से पहले क्या धरातल पर सच कर सकेंगे, ये सभी यक्ष प्रश्न हैं। मगर यह बात सच है कि समय जब अपना इतिहास खुद लिखेगा तो वो जरूर बताएगा कि कौन-कौन साथ रहा, कौन-कौन साथ रहते हुए छिटक गया, किसके साथ से सफलता मिली। बहरहाल जनता के नसीब में तो तब तक बस तारीख पर तारीख और खर्चीला न्याय ही लिखा है।
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