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साढ़े 3 करोड़ के पुराने नोट बदलने से हाईकोर्ट का साफ इनकार, जोधपुर पीठ का दो टूक, रद्द हो चुकी करेंसी अब वैध नहीं

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जोधपुर। नोटबंदी के नौ साल बाद पुराने नोटों को लेकर उठी आखिरी उम्मीद पर भी राजस्थान हाईकोर्ट ने विराम लगा दिया है। जोधपुर पीठ ने एक अहम और दूरगामी असर वाले फैसले में साढ़े तीन करोड़ रुपए की पुरानी 500 और 1000 की करेंसी को बदलने या जमा कराने की अनुमति देने से स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया।

जस्टिस डॉ. पुष्पेंद्र सिंह भाटी और जस्टिस अनुरूप सिंघी की डिवीजन बेंच ने 19 दिसंबर को सुनाए अपने रिपोर्टेबल जजमेंट में कहा कि नोटबंदी के तहत रद्द की जा चुकी मुद्रा अब महज कागज के टुकड़े हैं, और उन्हें वैध बनाने के लिए अदालत कोई निर्देश नहीं दे सकती।

यह फैसला बाड़मेर जिले की दुधु ग्राम सेवा सहकारी समिति सहित सात प्राथमिक कृषि ऋण सहकारी समितियों (PACS) की याचिकाओं पर आया, जिनके पास नोटबंदी के समय कुल साढ़े तीन करोड़ रुपए की पुरानी नकदी थी।

कोर्ट का स्पष्ट संदेश : नीति निर्णयों में दखल नहीं
हाईकोर्ट ने फैसले में बेहद अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि “केवल कठिनाई या असुविधा, चाहे वह कितनी ही वास्तविक क्यों न हो, किसी वैध आर्थिक उद्देश्य के तहत उठाए गए नियामक उपायों को अवैध ठहराने का आधार नहीं बन सकती।” कोर्ट ने माना कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा 14 और 17 नवंबर 2016 को जिला केंद्रीय सहकारी बैंकों (DCCB) पर पुराने नोट स्वीकार करने की रोक जनहित और वित्तीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर लगाया गया नीति निर्णय था।

याचिकाकर्ताओं की दलीलें, पर अदालत नहीं हुई सहमत
दुधु ग्राम सेवा सहकारी समिति ने बताया था कि नोटबंदी की घोषणा के समय उसके पास करीब 16.17 लाख रुपए की वैध नकदी मौजूद थी, जो किसानों और आम लोगों की जमा राशि थी।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि अन्य कुछ सहकारी संस्थाओं को नोट जमा करने की अनुमति दी गई, जबकि उन्हें इससे वंचित रखा गया, जो भेदभावपूर्ण है।
हालांकि अदालत ने इन दलीलों को स्वीकार नहीं किया और कहा कि समानता का सिद्धांत नीति निर्धारण में स्वतः लागू नहीं होता, खासकर तब जब वित्तीय जोखिम जुड़े हों।

आरबीआई और सरकार का पक्ष : मनी लॉन्ड्रिंग का खतरा
आरबीआई, केंद्र और राज्य सरकार की ओर से अदालत को बताया गया कि सहकारी बैंकों और पैक्स का ढांचा उस समय कॉमर्शियल बैंकों जैसा मजबूत नहीं था।
ऑडिट, तकनीकी निगरानी और लेनदेन ट्रैकिंग में कमियों के कारण काले धन को सफेद किए जाने का गंभीर खतरा था। इसी खतरे को देखते हुए सहकारी बैंकों को नोटबंदी प्रक्रिया से अलग रखना एक सावधानीपूर्ण और आवश्यक नीति फैसला था।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला
हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ (2 जनवरी 2023) के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा कि
आर्थिक और मौद्रिक नीतियों में अदालतों को तभी हस्तक्षेप करना चाहिए, जब निर्णय पूरी तरह मनमाना या असंवैधानिक हो।

नाबार्ड को भी राहत नहीं
कोर्ट ने यह भी साफ किया कि नाबार्ड केवल पर्यवेक्षीय संस्था है और वह आरबीआई के बाध्यकारी निर्देशों के विपरीत जाकर पुराने नोटों की जांच या निपटान का आदेश नहीं दे सकता। इस फैसले के साथ ही दुधु, बामनोर, बिसारनिया, खुडाला, पुरावा, भीमथल और मंगता ग्राम सेवा सहकारी समितियों की सभी याचिकाएं खारिज कर दी गईं।

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