24 News Update Udaipur. क्या पंजाब के राज्यपाल, चंडीगढ़ के प्रशासक और उदयपुर में जन-जन के चहते नेता गुलाबचंद कटारिया अब पॉलिटिकल हाशिये पर धकेले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। क्या आरएसएस के शताब्दी वर्ष में संघ के कर्मठ रहे कटारिया अब महामहिम के पद पर रहते हुए अपनी पॉलिटिकल सत्ता और उसकी विरासत की जमीन को बचाने के लिए पुरजोर संघर्ष करते हुए नजर आ रहे हैं। क्या उदयपुर में भाजपा की राजनीति अब क्लियर कट बाइपोलर हो गई है जिसमें कटारिया वाला छोर अब धीरे-धीरे अपना पॉलिटिकल आकर्षण खोता जा रहा है। ज्वालामुखी जो अब तक अंदर धधक रहा था, उसके मुख से लावा बहने से पहले की स्थितियां तो कहीं पैदा नहीं हो गई हैं? कहीं अंदरखाने पॉलिटिकल लॉयल्टी की शिफ्टिंग तो शुरू नहीं हो गई है? जो अब तक एक जहाज में सवार थे, कहीं वे धीरे धीरे दो नावों या रेस्क्यू बोट की शरण में तो नहीं जाने लग गए हैं? संघ के शताब्दी वर्ष में वरिष्ठ स्वयंसेवक अंदरखाने बेरूखी तो नहीं हो रही है। पंडित दीनदयालजी और सुंदरसिंह भण्डारी के आदर्शों की बात करते करते अपने खास प्रभाव क्षेत्र और उसके आगे शहर के मुद्दों पर मनमानी के हद वाले आलम अब कहीं भारी तो नहीं पड़ने लगे हैं।
वाल्तेयर की बात से शुरूआत करते हैं कि हो सकता है, आप हमारे विचारों से सहमत नहीं हों, मगर मैं विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा जरूर करूंगा।
उदयपुर में कल महामहिम के जन्मदिन पर उदयपुर में भारतीय जनता पार्टी के संगठन और कार्यकर्ताओं की ओर से कई संकेत दिए गए जिनको हम यहां डी-कोड करने का प्रयास करेंगे। जिन संकेतों से ही शायद आगे की राजनीति की दशा और दिशा तय होती दिखाई दे रही है। यह किसी को किसी खास कालखंड में विरोधी विमर्श भी लग सकता है मगर विश्लेषण में सत्य लिखने के अधिकारों की रक्षा यहां करने का प्रयास हो रहा है।
जिन महामहिम को उदयपुर सीएम के रूप में देखना चाह रहा था। जो जन जन के लाडले थे, आखिर उनकी पार्टी के उपरी स्तर पर उपयोगिता सिर्फ महामहिम पर ही सिमट पर क्यों रहे गई? बात का सिरा भाई साहब के असम का राज्यपाल बनाए जाने से खोलते हैं। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी से असम जैसे हमारे लिए सुदूर राज्य के राज्यपाल की जिम्मेदारी ने सबसे पहले उस खेमे को चौंकाया था जो वसुंधरा राजे से नाराज हाई कमान वाले उस सघन कालखंड में भाई साहब को चुनाव के बाद सीएम की कुर्सी पर विराजे हुए देखने का सुबह का लगभग सच होने जा रहा ख्वाब देख चुका था। यहां से जो संकेत निकले वो स्थानीय दखल से दूर रहने और अपनी खास तरह की पॉलिटिक्स से उपवास करने वाले संकेत थे। लेकिन भाई साहब की राजनीति का अपना ठस्सा और स्टाइल का जलवा पंजाब के रास्ते भी जारी रहा।
विधानसभा चुनावों में पार्टी ने फिर जब ताराचंद जैन के नोमिनेशन के रूप में भाई साहब को कॉम्लीमेंट्री तोहफा दिया तब भी भाजपा के धड़ों को लगा कि प्रभाव क्षेत्र ना सिर्फ बरकरार है मगर फैसलों से रिफ्लेक्ट भी हो रहा है। लेकिन लोकसभा के चुनाव आते आते पार्टी आला कमान ने फिर संकेत दिया कि अब भाई साहब की दखल की लकीर को लगातार छोटा करना है। मन्नालाल रावत के रूप में नाम सामने आना भाई साहब और उनके पूरे खेमे के लिए बड़ा झटका था। इस नाम पर सहमति नहीं थी मगर उपर से खींची हुई मर्यादा की लक्षमण रेखा को पार पाना असंभव सा हो गया। लगातार स्पष्ट होते जा रहे संकेतों के बावजूद पार्टी में निचले स्तर पर एक बहुत बड़ा ढांचा जो लार्जर देन लाइफ वाली छवि तले अपना राजनीतिक और इको-पॉलिटिकल वजूद तलाश रहा था, उसने अपना मोमेंटम नहीं खोया। उस तबके को लगा कि शायद कहीं पासा पलटने वाला कोई ना कोई मोमेंट उनका अपना चहेता नेता तलाश ही लेगा। इस संकेत को डी कोड ना कर पाने के साइड इफेक्ट तब सामने आए जब जिलाध्यक्ष का नाम अचानक प्रदेश भाजप से तय होकर आ गया। गजपालसिंह का नाम आना घड़ों पानी पड़ने जैसा था। लेकिन भाजपा की यही खूबसूरती है कि संगठन सर्वोपरी होता है, व्यक्ति नहीं। और इसमें असंतोष व असमतियों के स्वर इतने मंदे, धीमे होते हैं कि कई बार तो बातें लबों पर आते-आते ही रह जाया करती हैं।
शहर भाजपा का गजपाल मोमेंट वो डिसाइसिव मोमेंट था जब पार्टी के कर्णधारों ने स्पष्ट संकेत दे दिया कि अब उदयपुर की राजनीति में भाई साहब का कोई निर्णायक स्थान नहीं रहा है। और जैसा कि राजनीति का दस्तूर है कि जब भी पावर ट्रांसफर होता है तो कई लोग खेमा बदलते हैं, कई कोप भाजन के शिकार होते है, कई को अज्ञातवास में जाना पड़ता है तो कई गेहूं में घुन की तरह से पिस जाया करते हैं। क्या हम अभी इनमें से पावर ट्रांसफर की किसी प्रक्रिया को उदयपुर भाजपा में होते हुए देख रहे हैं? शायद हां। और उसके लिए किसी दिव्य दृष्टि या पॉलिटिकल एनालिसिस की आवश्यकता नहीं है। एक और सत्ता का सिद्धांत है कि जो खेमा किसी नेता की छांव में बरसों तक सत्ता सुख पाता है वो ब्याज के रूप में अपनी लॉयल्टी भी उस समय तक चुकाता है जब कि उसको पूर्ण भरोसा ना हो जाए कि अब खेमा बदलने में ही राजनीतिक समझदारी है।
अब आते हैं महामहिम के कल हुए जन्मदिन के कार्यक्रमों पर। जिस धड़े को उपरी हाथ वालों ने कमल की राजनीतिक कमान थमा कर आगे का रोडमैप सौंपा है वो पूरा का पूरा धड़ा स्पष्ट राजनीतिक संकेत दे गया कि भाजपा की आला लीडरशिप नई बागडौर के साथ उदयपुर की राजनीति की कमान कटारिया गुट से इतर किसी को देने का मन बना चुकी है। या कुछ राजनीतिक पंडित तो कह रही है कि डोर हाथों में थमा चुकी है।
ऐसे में बेचैनी होना लाजमी है। मंझे हुए उदयपुर की राजनीत के शिखर पुरूषों में से एक कटारियाजी ने कल अलग-अलग वक्तव्यों से यह संकेत भी दे दिया। उन्होंने कहा कि-
“यदि कोई भी मानसिक दृष्टि से तनाव में है तो चंडीगढ़ आ जाइए… मैं आपको ठीक कर दूंगा।”
“अगर किसी का नाम आयोजन लिस्ट में नहीं है तो वह बताता तो नाम जुड़वा देते।”
“हमारे मन में कोई कमजोरी नहीं है।”
ये स्टेटमेंट जब बिटविन द लाइंस पढ़े जाते हैं तब इनके निहितार्थ यही सामने आते हैं कि कटारिया खेमे में जबर्दस्त हलचल, बेचैन और घबराहट है। जन्मदिन पर शक्ति प्रदर्शन भी इसी का एक हिस्सा कहा जा रहा है। राजनीति में कहा भी जाता है कि जब आंतरिक अशांति बढ़ती है तो चुभने वाली या दार्शनिक बातें श्रीमुख से निकलती हैं। बाढ़ प्रभावित राज्य का राज्यपाल अगर चाहे तो जन्मदिन नहीं मनाकर अपने त्याग की मिसाल पेश कर सकता है मगर यहां हुआ उल्टा। महामहिम ने कहा कि मुझे अपनों के बीच जन्मदिन मनाना अच्छा लगता है। तो क्या, अपनों के बीच इसलिए आना पड़ा कि ताकि जश्न के बहाने खास लॉबी को संकेत दिया जा सके कि सब कुछ चंगा है, जमीन खिसकने के बावजूद उसे हासिल करने व मनचाहे लोगों को सत्ता हस्तांतरित करने के महाप्रयास अभी जारी हैं??
यह कड़वा सच है जो जनता तक महसूस कर रही है कि पार्टी की ओर से निरंतर कटारियाजी को अहसास करवाया जा रहा है कि अब राजनीति में उनकी पहले जैसी धारदार वापसी असंभव है। पर इससे इतर जो खेरख्वाह हैं वे स्वयं की प्रासंगिकता के लिए भाई साहब की प्रासंगिकता को बनाए रखने का हरचंद प्रयास कर रहे हैं। वे बार बार संकेत देना चाहते हैं कि भाई साहब ही उदयपुर की सक्रिय भाजपा राजनीत के वन एंड ओनली चेहरे हैं।
राजनीतिक सर्कल में कहा जाने लगा है कि उदयपुर के यातायात व्यवस्था की बदहाली, आयड़ नदी की बदहाली, जमीनों की बंदरबांट वाले तंत्र आदि के लिए आखिर कोई तो जिम्मेदार जरूर है? जब इतिहास लिखा जाएगा तब किसका नाम लिखा जाएगा??
अब फिर से अतीत में आते हैं, किरण माहेश्वरी के जमाने में जब भैरोंसिंह शेखावत कटारिया को नापसंद करते थे। तब किस तरह से धड़ेबंदी हुई थी और कटारियाजी ने बड़ी ही सफाई के साथ किरण महोश्वरी को राजसमंद जानकर वजूद बनाने पर मजबूर किया था, यह बहुत बड़ा प्रसंग है। इस पॉलिटिकल देस निकाले में किरण गुट के लोग पिस गए जिनमें से कइयों की आज तक संगठन में तो हो गई मगर मलाई वाले पदों पर मुख्य धारा वाली वापसी नहीं हो पाई। कुछ माफी मांगकर वापस आ गए थे मगर उनकी माफी भी आज तक अंडर ट्रायल ही है। जो लोग क्लियर कट आइडेंटिफाइड हो गए, वे वनवासी हो गए।
कटारियाजी ने कल अपनी एक स्पीच में कहा था कि पुराने लोग जाते हैं, नए को जिम्मेदारियां मिलती हैं, यह पार्टी में चलता रहता है। लेकिन क्या सीख हम लेकर युगों से नए युग का करें स्वागत वाली कोई बात उदयपुर में हो रही है?? ऐसा दिखाई तो नहीं दे रहा।
अब आते हैं दिनेश भट्ट के जिलाध्यक्ष बनने वाले प्रसंग पर क्योंकि यहां से भी कटारिया की राजनीत की झलक मिलती है। आरएसएस के बेकअप से उदयपुर जिलाध्यक्ष बने भट्ट को कभी महामहिम का आशीर्वाद न मिल सका। विरोध में पूरा पैनल चुनाव लड़ा था और हारा था महिला समृद्धि बैंक का, किसके नेतृत्व में??? किसके कहने पर?? तब कटारिया सक्रिय राजनीति में थे और पहली बार उनकी इच्छा का हरण हुआ था। दूसरी बार गजपालसिंह राठौड़ को जिलाध्यक्ष बनाने पर हुआ है। दिनेश भट्ट के कालखंड में संगठन ऐसे दो फाड़ हुआ था कि संगठन के कार्यक्रम में ही लोग नहीं आते थे, उनको रोका जाता था। अब भी यही तो नहीं हो रहा है कहीं?? कहा जा रहा है कि गजपालसिंह के कार्यक्रम में कुछ चेहरे नहीं दिखाई दे रहे हैं।
शहर भाजपा का कोई कार्यक्रम महामहिम के जन्मदिन पर नहीं होना साफ संकेत है कि आने वाले दिनों में जब निकाय चुनावों का बिगुज बजेगा। पार्षद बनने के लिए आंतरिक रूप से घमासान होगा, तब भी भाई साहब और उनकी गुडबुक में आने वालों के हाथ कुछ खास नहीं आने वाला है। यहां तक कि अब प्रभाव भाई साहब के खासमखासों पर भी आना तय दिखाई दे रहा है। निकाय चुनाव एक और मौका होंगे जब उदयपुर भाजपा के कटारिया युग की अंतिम छवि निर्णायक रूप से सामने आ जाएगी। लेकिन यहां से पार्टी में एक ऐसे विचनल का दौर भी शुरू हो रहा है जो कई लोगों को खटक रहा है। मसलन उम्रदराज कार्यकर्ता-पदाधिकारी किसी भविष्य के लाभ के लिए अपनों से छोटों की चरण वंदना करते नजर आ रहे हैं। पार्टी के नए संभावित कलेवर में बहुत ज्यादा केंद्रीयकरण दिखाई दे रहा है। ओल्ड गार्ड को हाशिये पर धकेले जाने का डर सता रहा है। नए जोश में होंश की कमी दिखाई दे रही है। कुल मिलाकर यह संधिकाल भाजपा के लिए ही नहीं, शहर कांग्रेस के लिए भी काफी दिलचस्प होने वाला है। उसके लिए यहां पर मौका है लाइफटाइम अचीवमेंट जैसे किसी खिताब के हासिल कर लेने का। मगर उसके लिए वो भी तैयार नहीं दिखाई दे रही है।

