— उदयपुर की प्रशासनिक विफलताओं पर संपादकीय —
उदयपुर। देहलीगेट पर कल प्रशासनिक मान मर्दन वाले लाइव शो के बाद चर्चा—ए—आम है कि लेकसिटी का भगवान ही मालिक है। ‘पॉलिटिकल बावर्चियों’ के आगे घुटनों का ‘ग्रीस’ गंवा बैठे अफसरों पर लोगों को ‘दया’आ रही है। वे भक्तिमति “मीरा” का भजन गुनगुनाते हुए दिखाई दे रहे हैं कि—
जो मैं ऐसा जानती रे, प्रीत कियाँ दुख होय।
नगर ढुंढेरौ पीटती रे, प्रीत न करियो कोय…।
उदयपुर में प्रशासन और नेताओं की प्रीत को सबने देख लिया, परख लिया। यह भी देख लिया कि दोनों की आशिकी के अंतहीन सिलसिले शहर का बंटाढार कर रहे हैं। कहर बरपा रहे हैं। कानून का मखौल उड़ा रहे हैं। नियमों को कूड़ेदान में फेंका जा रहा हैं।
अब तो भाड़ में गया जल प्रदूषण का संदेश, भाड़ में गई स्वच्छता, भाड़ में गए स्मार्ट सिटी की स्मार्टनेस। भाड़ में गए कानून—कायदे, नियम। क्योंकि प्रशासनिक मशीनरी अब किसी कागज़ी नियम से नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेतों से कठपुतली स्टाइल में संचालित होती दिख रही है। इधर नेता ने धागा खींचा उधर कठपुतली ने नाच दिखाया। कठपुतली का खुद का कोई इकबाल बचा है ना वजूद। पहले बड़े नेता नचाते थे, अब हर कोई नचा रहा है। ।
निगम की कार्रवाइयों में जमीन पर हालत ये हो गए कि
जब तक नेता मौजूद नहीं—कार्रवाई शुरू। हाउज द जोश वाली सिचुएशन।
जैसे ही नेता पहुंचे—कार्रवाई बंद। चरण वंदना शुरू।
यही वो ‘नई व्यवस्था’ है जिसमें अब हम सभी शहरवासियों को अब हमेशा के लिए ढल जाना है। सच को स्वीकार करना है और सिस्टम का हिस्सा बन जाना है।
याने, नेता से संपर्क रखो, जमकर दो नंबर का काम करो। नियमों को गटर में बहाते रहो। नोटिसों के जवाब मत दो, पॉलिटिकल खानसामा समय आने पर सब देख लेगा।
और जब प्रशासनिक अमला कार्रवाई करने आए तो फोन घनघना कर नेताओं को बुला दो। हाय—तौबा वाला सीन क्रिएट कर दो। अफसर, जो पहले से डरपोक हैं, और पता नहीं कौनसा मुहूर्त देख या किसी के कहने पर साहस जुटा कर कार्रवाई करने आए हैं, वो और डर जाएंगे। नियमों की पतली गली निकाल खुद पतली गली से निकाल चलते बनेंगे।
बाद में पॉलिटिकल बावर्ची नेता भी डबल रोल में दिखाई देंगे। पहले प्रशासन को कार्रवाई से रोकने की भाषणबाजी व बोलवचन कहेंगे। छोटा—मोटा जुर्माना करवा खासमखास को बचाएंगे और उसके बाद ओन कैमरा जिसने बुलाया है, उसको भी उपदेश देकर मुकाबला बराबरी का कर देंगे। ताकि जनता में मैसेज जाएं कि बेचारी नेताजी को तो कुछ पता ही नहीं था, वे तो मौके पर चले आए तब पता चला कि नियमों को गटर में बहाया जा रहा है।
अब
लोग पूछ रहे हैं कि ये नेतागिरी की मोहलत किस चिड़िया का नाम है और यह किस—किस को मिलती है??? प्रशासन को अब स्प्ष्ट कर दी देना चाहिए कि इसकी क्या थ्योरी है।
खामख्वाह कार्रवाई का नाटक ही क्यों करना?? अफसरों को चाहिए कि पहले नेताओं से लिस्ट अप्रूव करवा लें कि कहां पर निगम को कार्रवाई करनी है, कहां नहीं करनी है और कहां पर जनता दरबार वाले ड्रामे की गुंजाइश है।
हमदर्द का टॉनिक लेकर घूमने वाले पॉलिटिकल बावर्चियों को तो खुली छूट दे देनी चाहिए कि अब निगम की कमान वे ही संभाल लें। खामख्वाह मोटी तनख्वाह वाले अफसरों को फील्ड में आकर जलील होना पड़ता है। दो बातें सुननी पड़ जाती है।
प्रदूषण का क्या है, जब लेकसिटी में पहाड़ों को कटने से नहीं रोक सके, नदियों को अतिक्रमण व प्रदूषण से नहीं रोक सके, आयड़ को हत्यारों से नहीं रोक सके तो फिर सिवरेज के चेम्बरों में गंदगी को रोक कर कौनसा पहाड़ उखाड़ लेंगे।
शिकायतों का क्या है, आती रही हैं, आती रहेंगी
शहर में लंबे समय से शिकायतें थीं कि कई रेस्टोरेंट्स अपने किचन का गंदा पानी—ग्रेवी, झूठन, तेल—सब कुछ सीधे सीवरेज लाइन में बहा रहे हैं। ग्रीस चैंबर जर्जर हो गए हैं। अपशिष्ट भरे हुए मौके पर मिले—अफसरों ने खुली आंखों से देखा। यह पहले लापरवाही कोई आज की बात तो थी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम का मज़ाक लंबे समय से बना रही थी। इन और उन नेताओं की होटलों में भी यही सब चल रहा था।
हम तो नगर निगम से पूछना चाहते हैं कि उन्होंने नियम अनुसार जुर्माना लगाया तो क्यों लगाया?? सीज करने के बारे में सोचा तो क्यों सोचा। इस तरह की क्रिएटिव सोच आखिर अफसरों को आई कहां से?? जबकि वे पहले से जानते थे कि राजनीतिक खानसामों के आगे वे दाल भात में मूसलचंद से ज्यादा की हैसियत तो नहीं पा सकते??
चेम्बर ओफ पॉलिटिक्स बनाम ग्रीस चेम्बर
व्यापारी विरोध + जनप्रतिनिधि उपस्थित = प्रशासनिक ऑपरेशन बंद। ये वो सूत्र है जो अब उदयपुर में अजर अमर हो गया है। संगठित होकर विरोध करो, सत्ता प्रतिष्ठान वाले नेताओं को मौके पर बुला लो, उसके बाद तो कोई भी आपका बाल बांका नहीं कर सकता। और अगर से सूत्र या कॉम्बो पैक मैनेज करना आपके बूते से बाहर है तो आपका सामान सरेराह उठा लिया जाएगा। वहां नोटिस नहीं चलता, मोहलत तो कभी नहीं मिलती। एक मदमस्त हाथी की तरह टीम चलती है। राह में जो अतिक्रमण मिला, सो उठा लिया। मगर ये हाथी तब भीगी बिल्ली बन जाता है जब सामने पॉलिटिकल बावर्ची खड़े हो जाते हैं। इनको दया आ जाती है। नियम शिथिल होकर जब्ती से जुर्माने तक का सफर चुटकी बजाने से पहले तय कर लिए जाते हैं।
रीढ़ की हड्डी की जांच होनी चाहिए
यही वह दोहरा चरित्र है जिसने शहरवासियों का आक्रोश बढ़ा दिया है। जब एक गरीब ठेलेवाले को या उसकी अस्थायी दुकान हटाई जाती है—तब तो न कोई व्यापारी संघ मैदान में उतरता है, न कोई नेता ‘संवेदनशीलता’ दिखाता है। किसी को नियम नहीं दिखाई देते। राजनीतिक खानसामे भी मिर्च मसाला लेकर हाथ—कमल कॉकटेल वाली स्वीट डिश बनाने मौके पर नहीं पहुचते।
लेकिन जैसे ही बड़े रेस्टोरेंट्स या हाथियों पर निगम हाथ डालता है—राजनीतिक कमल खिल उठता है, किसी पॉलिटिकल पार्टी का चुनाव चिन्ह उसका हाथ पकड़ लेता है। अचानक राजनीति भावुक स्वर ‘लोकतंत्र और धर्मतंत्र को बचाने’ की दुहाई देने लगती है।
जनता पूछ रही है—
क्या स्वच्छता, कानून और नियम भी अब आर्थिक हैसियत देखकर लागू होंगे?
अवैध कब्जे, गलत पार्किंग और सड़कें घेरने की समस्या अब कभी हल नहीं होगी???
क्या पॉलिटिकल खानसामों और अफसरों की रीढ़ की हड्डी की जांच नहीं होनी चाहिए??
और फिर वही पुरानी कहानी दोहराई जाएगी—
व्यवस्था बिगड़ेगी, जनता भुगतेगी, और दोष किसी का नहीं होगा।
पॉलिटिकल बावर्चियों की मौजूदगी में अधिकारियों ने रेस्टोरेंट संचालकों को चेतावनी दी कि अगली बार चूक मिली तो तत्काल सीजिंग होगी। इस पर भी लोगों को हंसी आ रही हैं। प्रशासनिक नाकामी का इससे बेहतर उदाहरण और कोई ढूंढे नहीं मिलेगा। चौबेजी छब्बेजी बनने गए थे, दुबेजी भी बनकर नहीं लौटे।
🔚 अंतिम सवाल— क्या कानून सबके लिए बराबर कभी होगा?
उदयपुर जैसे सांस्कृतिक और पर्यावरण-संवेदनशील शहर में
अगर सीवरेज और स्वच्छता जैसे बुनियादी विषयों पर भी
प्रशासन स्वतंत्रता से काम न कर पाए,
तो नगर निगम और उसकी मशीनरी के ‘होने’ और ‘न होने’ में फर्क क्या रह जाता है?
फालतू में काई—को अफसरों को मोटी तनख्वाह देना, उनकी हिलने वाली कुर्सी पर नेताओं को बिठाओ।
उदयपुर आज सिर्फ एक सवाल पूछ रहा है—
क्या इस शहर में नेता कानून से उपर हो गए हैं??? उनका वचन ही शासन है क्या???
जब तक इसका जवाब नहीं मिलता—
न तो शहर स्वच्छ होगा…
न प्रशासन विश्वसनीय…
और न ही शासन व्यवस्था जनहितकारी।

