रिपोर्ट- सुशील जैन

24 न्यूज अपडेट. उदयपुर। उदयपुर नगर निगम बोर्ड के कार्यकाल में बस कुछ ही दिन बचे हैं। अंतिम पलों में बहुप्रतीक्षित एलिवेटेड रोड का आनन-फानन में 18 नवंबर को भूमि पूजन तय हुआ है। बिना किसी गर्मजोशी और ढोल-ढमाके के चुपचाप निमंत्रण पत्र बांट दिए गए हैं। कल महामहिम पंजाब के राज्यपाल गुलाबचंद कटारिया, स्वायत्त शासन मंत्री झाबरसिंह खर्रा सहित अन्य महानुभाव इसका भूमि पूजन करने जा रहे हैं। नगर निगम के कर्ताधर्ता और कुछ नेता फ्लाई ओवर को अपने राजनीतिक कॅरियर की सबसे बड़ी उपलब्धि बातते हुए बड़े उत्साहित हैं। बरसों पुराना सपना सच होने व इतिहास रचे जाने की बातें हो रही हैं। सिटी रेलवे स्टेशन से कोर्ट चौराहे से आगे बंशीपान तक के एलिवेटेड रोड के लिए कुल 137 करोड़ का टेण्डर व वर्कऑर्डर हो चुका है। टेंडरधारी फर्म को इस काम को दो साल में पूरा करना है। इसकी कुल लंबाई 2.8 किलोमीटर और चौडाई 12 मीटर है। चौड़ाई के 12 मीटर में आधा-आधा मीटर किनारे की दीवार भी शामिल हैं। एलिवेटेड रोड के नीचे निश्चित दूरी पर तीन मीटर जगह घेरने वाले खंभे लगेंगे। इसके अलावा चढ़ते व उतरते समय रोड पर 400-400 फीट के रेंप तीन तरफ बनेंगे। इस रोड की एक भुजा कोर्ट चौराहे से अस्पताल वाले रास्ते पर उतरेगी। इससे पहले यह भुजा देहलीगेट पर अश्विनी बाजार की तरफ उतरनी थी मगर विरोध के बाद इस विचार को त्याग दिया गया। इस काम के लिए सरकारी निविदा 179 करोड़ की प्रस्तावित थी। लेकिन जिस फर्म ने 137 करोड़ का टेण्डर भरा, उसको ठेका दिया गया है। याने, सरकारी दरों से 24 प्रतिशत कम पर ठेका दिया गया है। जो कंपनी इसका निर्माण करेगी वही 10 साल तक उसका रख रखाव भी देखेगी। इस फ्लाई ओवर के निर्माण को लेकर जद्दोजहद बरसों से जारी है। बरसों बाद इस बार के राजस्थान बजट में फ्लाई ओवर के लिए राशि का प्रावधान हुआ और इसके निर्माण पर बड़ी सरकारी मुहर लग गई।
फ्लाई ओवर, एलिवेटेड रोड, ग्रेट सेपरेटर आदि प्रकार के रोड किसी भी शहर के विकास के पंख होते हैं। आप इन्हें अर्थव्यवस्था का इंजन भी कह सकते हैं। लगभग हर बड़े शहर में इनका निर्माण हो रहा है। लेकिन आज की खबर में हम तथ्यों के आधार पर यह विश्लेषण करेंगे कि क्या वाकई उदयपुर का फ्लाई ओवर वर्तमान और भविष्य की जरूरतों को देखते हुए बनाया जा रहा है, उसके हर तकनीकी पहलू पर बारीकी से अध्ययन करने और विशेषज्ञों की राय लेने के बाद यह विचार धरती पर उतर रहा है या फिर कई तकनीकी व प्रामाणिक तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए जल्दबाजी में कुछ खास लोगों के दबाव में इसे बनाने का ऐसा फैसला कर दिया गया है जो आगे जाकर नासूर बन सकता है। क्योंकि मामला जनता की पाई-पाई के सदुपयोग की मंशा का है इसलिए इस पर हमने कई विशेषज्ञों से बात कर कुछ समालोचनात्मक तर्क व बिन्दु तय किए, जिनका जवाब मिलना अत्यंत जरूरी है। हर जागरूक शहरवासी को इन बिन्दुओं पर खुद विचार करना चाहिए और यदि तथ्य व बिन्दु जवाब मांगे जाने लायक हैं तो नेताओं व अधिकारियों से सवाल-जवाब जरूर होने चाहिए। क्योंकि यह एलिवेटेड रोड केवल हमारा ही नहीं, हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी विकास का दस्तावेज है। नेता व अफसर आज हैं कल चले जाएंगे, रोड तो यहीं रहने वाला है। कल यह रोड सवाल बनकर ना खड़ा हो जाए इसलिए आज जवाब मांगना जरूरी है। आइये बिंदुवार कुछ तथ्यों पर विचार करते हैं-

एलिवेटेड रोड नहीं, ‘‘एलिवेटेड फ्लाई ओवर’’ कहिये
2008 में जब यातायात की समस्या पर विचार हुआ तो हाईकोर्ट में स्थानीय प्रशासन ने बताया कि प्रतापनगर बाइपास का निर्माण किया जा रहा है। उसके बाद 2013 में शिवकिशोर सनाढ्य की अगुवाई वाली यूआईटी ने सबसे पहले विचार किया कि क्यों ना शहर में भी एक फ्लाई ओवर बनाया जाए। एलएंडटी कंपनी से इस काम की विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनवाई गई। नेताओं को बड़ी उम्मीद थी लेकिन उसके विपरीत रिपोर्ट में कहा गया कि ज्यादा मुआवजा देकर जमीन अवाप्त करनी पड़ेगी तथा आर्थिक व तकनीकी रूप से यह प्रोजेक्ट निरर्थक रहेगा। इसके बाद फिर राजनीतिक पहल पर यूआईटी की ओर से इस विचार को पुनर्जीवित किया गया। अबकी बार एनएचएआई से आग्रह किया गया कि आप इसे बनवाइये। एनएचएआई ने 2017 में योजना बना कर दी तो फिर मामला हाईकोर्ट चला गया। बात इस रास्ते पर 90 डिग्री वाले खतरनाक कोणों की थी इसलिए कोर्ट ने एनएचएआई को निर्देष दिए कि आप इस योजना को सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट से मंजूर करवाएं। इसकी डिजाइन की भी विस्तार से जांच करें। एनएचएआई ने कोर्ट को जवाब दिया कि इंस्टीट्यूट की ओर से डिजाइन की जांच करने में 30 लाख खर्च होंगे। मापदंडों की पालना के लिए भूमि अवाप्त करनी पड़ेगी। ऐसे में हम यह परियोजना निरस्त कर रहे हैं। इस पर योजना निरस्त हो गई। इसके बाद 2018 में कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा कि भविष्य में भी कभी ऐसी रोड का प्रस्ताव आए तो उसे हमारी मंजूरी के बिना अनुमति नहीं दी जाए। मामला फिर ठंडा हो गया मगर राजनीतिक उम्मीदें हमेशा सुलगती रहीं। 2023 में यूआईटी हाईकोर्ट गई व कहा कि हम शक्तिनगर तिराहे से अश्विनी मार्ग तक एक फ्लाई ओवर बनाना चाहते हैं। कोर्ट ने अनुमति दे दी व कहा कि ठीक है, बना लीजिए। इस पर वर्ष 2024 में नगर निगम कोर्ट गई व जो दिलचस्प बात थी। बनाना यूआईटी को था, गई नगर निगम। हाईकोर्ट में निगम ने कहा कि जो प्रोजेक्ट यूआईटी या यूडीए बना रही थी अब वो हम बनाना चाहते हैं। यूआईटी ने अनापत्ति प्रमाणपत्र दे दिया है व मामूली परिवर्तन दिया हैं जिसको हम संलग्न कर रहे हैं। आपको जानकार हैरानी होगी कि जो मामूली परिवर्तन था वह यह था कि पूरे रोड को ही एलिवेटेड रोड बना दिया जाए। हाईकोर्ट में प्रस्तुत दस्तावेजों में इसे ‘‘एलिवेटेड फ्लाई ओवर’’ का नाम दिया गया। इसके साथ ही निगम की ओर से बकायदा एफिडेविट दिया गया कि हम ये जो काम करेंगे उसमें इंडियन रोड कांग्रेस के सारे मापदंडों की पालना की जाएगी। जबकि एलिवेटेड रोड तो किसी भी रोड के समानांतर ही बनाई जाती है और फ्लाई ओवर किसी भी सड़क को पार करने के लिए बनाया जाता हैं। सवाल उठ रहा है कि यह एलिवेटेड रोड है या फ्लाई ओवर। यदि रोड कांग्रेस के नियमों के अनुसार है तो फिर यह तकनीकी रूप से पूरी तरह से गलत है। उसकी परिभाषा में ही नहीं आती है। यूआईटी को फ्लाई ओवर बनाने की मंजूरी दी गई थी जिसको एक प्रकार से दूसरी सरकारी एजेंसी को ही ट्रांसफर किया गया। कोर्ट में इसे ‘‘वन ऑर्गन टू अनादर ऑर्गन’’ लिखा गया।

एनएचआई बड़ी या फिर नगर निगम
मान लो आप कोई जटिल ऑपरेशन करवाने जा रहे हो। आप यह ऑपरेशन किसी एमबीबीएस डॉक्टर से करवाना चाहोगे या फिर उस खास बीमारी में एमएस किए सर्जन से। आपका जवाब सहज ही होगा कि सर्जन से करवाएंगे। लेकिन उदयपुर के फ्लाई ओवर के मामले में ऐसा नहीं हुआ। नगर निगम ने फ्लाई ओवर बनाने का जिम्मा हाथ में ले लिया जबकि यह जिम्मा पूरे भारत में सड़कों का जाल बिछाने वाली एनएचएआई या फिर यूआईटी का था जिसको बड़े बडे प्रोजेक्ट पूरे करने का अनुभव है। नगर निगम जो आपके और हमारे कहने पर एक सड़क तक नहीं बना सकती, वो फ्लाई ओवर को बनाने का भार अपने कांधों पर क्यों उठा रही है, यह तर्क ही समझ से परे है। निगम के अधिकारियों, मेयर व वर्तमान बोर्ड की ऐसी क्या जिद है कि निगम खुद ही इसे बनवाएगी, जबकि उसे भी ज्यादा अनुभवी संस्थान इसी डबल इंजन की सरकार के पास मौजूद हैं। मंत्रीजी नितिन गडकरी से ही अनुरोध कर लेते, वे देश में ऐसी सड़कें बनवा रहे हैं जो विश्व स्तरीय हैं जिनकी वाहवाही पूरी दुनिया में हो रही है। उनका मंत्रालय ही यह सड़क बनवा देता। मगर यहां पर किसी के दबाव में आकर लगता है उल्टी गंगा बहाई जा रही है। जिस काम के लिए यूआईटी ने हाथ खड़े कर दिए, जिस काम के लिए एनएचएआई ने मना कर दिया, उस काम को निगम से कराने का सीधा सा मतलब है ‘नीम-हकीम-खतरा-ए-जान’।

नहीं बदले रोड के कोण, केवल बदल गया दृष्टिकोण
इस प्रोजेक्ट की जो डीपीआर बनाई गई है वह आज भी 2013 वाली ही है। जो अलाइनमेंट कलेक्टरी से लेकर स्टेशन तक का 2013 से था वह आज तक वही का वही है। इस आलइनमंट को दो एजेंसिया यूडीए और एनआरएचएम नकार चुकी है लेकिन निगम में यह स्वीकार्य है। एनएचएआई ने जो रोड की चौड¬¬¬ाई 14 मीटर बताई थी उसको घटा कर 12 मीटर दिया गया हैं उसमें से डिवाइडर गायब कर दिए गए हैं। याने कि पैदल चलने वाले का पैसा तो लगा होगा मगर वो इस फ्लाई ओवर का केवल नीचे से दीदार ही कर पाएगा। डिवाइडर नहीं होन से एक्सीडेंट बढ़ेंगे। अब तक बचने के लिए फुटपाथ हुआ करते थे, वो भी नहीं दिए गए हैं। अभी 250 मीटर अर्धव्यास चाहिए वो केवल 60 मीटर का ही रखा गया है। शार्प कर्व होगा व उससे विजिबिलिटी डिस्टेंस कम हो जाएगी तो खतरा बढ़ जाएगा।

हद कर दी कॉपी पेस्ट की, अंधा बांटे रवड़ी जैसे हालात
हाईकोर्ट में निगम ने लिखकर दिया है कि हम इंडियन रोड कांग्रेस के नियमों की पालना करेंगे मगर वास्तव में ऐसा नहीं हो रहा है। प्रोजेक्ट रिपोर्ट जिसको कि सामान्य तौर पर डीपीआर कहते हैं। यह जिस कंसलटेंट से बनवाई उसमें किसी अन्य प्रोजेक्ट रिपोर्ट की कॉपी पेस्ट की भरमार है। नगर निगम का दस्तावेज देख कर ही इस रिपोर्ट को अप्रूव करने व जांचने वालों पर तरस आ जाता है। हालत अंधा बांटे रेवड़ी जैसी हो रही है। टेण्डर डाक्यूमेंट जो जारी किया है उसमें कुल 500 पेज हैं। जबकि परियोजना रिपोर्ट करीब 200 पेज की है।

  • टेण्डर डाक्यूमेंट में लिखा गया है कि हम एग्रीमेंट करने के 30 दिन में 90 प्रतिशत कार्यक्षेत्र या कम से कम 5 किलोमीटर कार्यक्षत्र टेंडर लेने वाली फर्म को सौंपेंगे। ऐसे में एस्टीमेट लगाएं तो जब रोड की कुल लंबाई ही 2.8 किलोमीटर है तो फिर कौनसा 5 किलोमीटर का वर्क एरिया निगम ठेकेदार को सौंपेगा,??? यदि कल काम शुरू होने से 30 दिन में निगम अगर पूरा का पूरा ही रोड खाली नहीं कराएगा तो उसे 30 दिन में ठेका फर्म को मुआवजा देना पड़ेगा।
  • टेंडर डाक्यूमेंट में लिखा है कि प्रोजेक्ट की ड्राइंग को रेलवे अथॉरिटी से मंजूर करवानी है। अगर नहीं करवाई तो निगम से एग्रीमेंट साइन होने के बाद कंपनी उसका मुआवजा मांग सकती है। इसके लिए 60 दिन की मियाद है। अब इस काम में रेलवे का क्या लेना देना है यह समझ से परे है??? हद है कॉपी पेस्ट करने की??
    ठेका सबलेट होगा तो गुणवत्ता का क्या होगा?
    बड़ा सवाल ये है कि टेंडर में 49 प्रतिशत तक काम सबलेट करने का प्रावधान रखा गया है जो बहुत ज्यादा है। जैसा कि व्यवहार में देखा जाता है, ठेका कंपनियां इससे अधिक का ठेका मिलीभगत से सबलेट कर लेती हैं व बाद में उसके नासूर वैसे ही झेलने पड़ते हैं जनता को, जैसे कि हम स्मार्ट सिटी के कामों में झेल रहे हैं। अब होगा यह कि एक ठेकेदार दूसरे को काम देगा व बीच में मुनाफा कूटेगा। इससे गुणवत्ता पर असर हो सकता है।
  • सुपरविजन का काम भी ठेके पर
    जो सुपरविजन का काम है वो भी ठेके पर देने का प्रावधान किया गया हैं इसमें लिखा है कि हम एक कंसलटेंट नियुक्त कर सकते हैं जो आपका याने कि फ्लाई ओवर का काम देखेगा। सुपरविजन का काम प्राइवेट पार्टी को देने का हश्र सिवर लाइन में हम देख ही चुके हैं। इसके अनुभव क्या यहां भी दोहराए जाएंगे?? हद ये है कि जिस काम की निगम के अधिकारी सुपरविजन तक करने की योग्यता नहीं रखते हैं, उसका ठेका निगम ले रही है??
  • कार की सेवा आखिर क्यों?? किसके लाभ के लिए
    एलिवेटेड रोड बनाने की शर्तों में शामिल है कि ठेकेदार नगर निगम को दो कारें इनावो कंपनी या उसके बराबरी की 2021 के बाद के मॉडल की देगा। तब तक के लिए जब तक काम चलेगा। यह सेवा मुफ्त में होगी, 4 हजार किलोमीटर प्रति माह चले जितना उसका डीजल व पेट्रोल, टोल टेक्स, ड्राइवर व मेंटेनेंस आदि भी दिया जाएगा। प्रोजेक्ट निगम की नाक के नीचे बन रहा है। कार लेकर कौन कहां जाएगा यह बड़ा सवाल है। इस कार की सेवा का मिसयूज होगा, यह तय बात है। इस मामले में भ्रष्टाचार के आरोप भी बाद में लग सकते हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि आम तौर पर जब सुदूर इलाकों में कोई रोड बन रही होती है व निरीक्षण परीक्षण में लंबी यात्राओं का सरकारी महायोग बनता है तब इस तरह की बातें टेंडर में लिखी जाती हैं। मजे की बात ये है कि फ्लाई ओवर का निर्माण पूरा होने के बाद 10 साल तक का रख रखाव भी वहीं एजेंसी करेगी व इस दौरान भी एक कार नगर निगम को दी जाएगी। इसके अलावा 200 वर्गफुट का ऑफिस भी ठेकेदार नगर निगम को सड़क के उपर बनाकर देगा। इसे साइट ऑफिस मय टायलेट कहा गया है। इसकी भी जरूरत आखिर कहां पर है। निगम के दफ्तार से ही काम दिख जाएगा, उसको देखने के लिए अलग से ऑफिस की जरूरत ही कहां थी। इसे बनाने में जनता का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। यह सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि हमारे काबिल अफसरों ने टेंडर की शर्तां को पढ़ा ही नहीं है। उनकी अनदेखी को जनता आखिर क्यों झेलें। इसे लेकर लोग कोर्ट भी जा सकते हैं।
  • लेबोरेट्री बनाने की जरूरत ही क्या है?
    फिजूलखर्ची की एक और मिसाल यह है कि टेंडर डाक्यूमेंट के अनुसार में बताया गया है कि साइट पर लेबोरेटरी बनाएगी जिसमें सामानों की जांच होगी। उदयपुर में 10 से 20 लेबोरेटरी पहले से हैं। इसमें पीडब्ल्यूडी व यूआइटी की भी है। वहां से क्या जांच नहीं हो सकती थी। नई लैब का पैसा जनता क्यों भुगते??
  • आफ्टर रिटायरमेंट बेनिफिट प्लान तो नहीं
    सुपरविजन के लिए जो दक्ष विशेषज्ञ निगम की ओर से लगाया जा रहा है उसका नाम फिलहाल सामने नहीं आया है लेकिन यह लग रहा है व चर्चा है कि यह कहीं किसी इंजीनियर टाइट पॉलिटिशियन का ऑफटर पॉलिटिकल रिटायरमेंट बेनिफिट प्लान तो नहीं बन रहा है।
  • केवल 5 साल की सहूलियत के लिए पाल रहे हाथी
    2023 में हुए ट्रेफिक सर्वे का हवाला देते हुए प्रोजेक्ट रिपोर्ट में लिखा गया है कि कुल 53 हजार व्हीकल रोज बंशीपान से निकल रहे है। उसमें से 10 हजार 500 एलिवेटेड रोड पर जाएंगे व बाकी नीचे वाली सडक से आएंगे। इसमें हर साल पांच प्रतिशत वाहन की वृद्धि होगी। अनुमान है कि 2030 तकं 14800 वाहन उपर की रोड से जाएंगे, अभी यह संख्या 10500 हैं। अभी जो वाहन नीचे से जा रहे हैं वो भी 5 परसेंट बढेंगे। 2028 में इनकी अनुमानित संख्या 54 हजार 122 हो जाएंगी। विशेषज्ञांं का कहना है कि जो स्थिति आज है वह एक बार फिर से 2028 में पैदा हो जाएगी। तब उसका कोई सोलयूशन नहीं होगा व हमारे पास एक सफेद हाथी खड़ा होगा। इस एलिवेटेड रोड का उपयोगी जीवन काल केवल 5 साल का रहने वाला है। ऐसे में इसकी जगह अन्य विकल्पों पर विचार किया जाना जरूरी है। इसके समाधान के रूप् में मैट्रो वाहन, टैरिफ सब्सिडी व बेहतर ट्रैफिक मैनेजमेंट हो सकता है। यह सुझाव 2017 में यूआईटी को एलएंडटी कंपनी ने भी दिया था कि विकल्प तलाशे जाएं।

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By desk 24newsupdate

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