24 न्यूज़ अपडेट उदयपुर। पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर द्वारा 21 से 30 दिसंबर तक आयोजित होने वाले शिल्पग्राम महोत्सव में भील जनजाति की नृत्य नाटिका ‘गवरी’ मेलार्थियों का रोजाना मनोरंजन करेगी। ‘गवरी’ प्रकृति के शृंगार को यथारूप रखने का सुन्दर नृत्यानुष्ठान है। यह नृत्य शिव के तांडव और गौरी के सुंदर नृत्य का मिला-जुला स्वरूप है।
इसके पीछे की कथा-
पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर के निदेशक फुरकान खान ने बताया कि इस बार ‘लोक के रंग- लोक के संग’ थीम पर केंद्रित शिल्पग्राम महोत्सव के दौरान शिल्पग्राम में थड़े पर यह आदिवासी लोक नृत्य मेलार्थियों को रिझाएगा। दरअसल, ‘गवरी’ एक नृत्य-नाट्य है, जो महादेव शिव व महादेवी को रिझाने के लिए भील जनजाति के गांवों में आयोजित होता है। पौराणिक व लोक कथाओं के अनुसार एक बार भस्मासुर ने अपनी तपस्या से शिव को प्रसन्न कर एक भस्मी कड़ा प्राप्त कर लिया। माता पार्वती को पाने की लालसा में उसने भगवान शंकर को ही भस्म करना चाहा, किन्तु विष्णु ने मोहिनी स्वरूप धारण कर भस्मासुर को ही भस्म कर दिया। भस्म होते समय भस्मासुर ने अन्तिम इच्छा के रूप में एक वरदान मांगा था। इसी कथा को यह नृत्य दर्शाता है।
मनाते हैं ‘गवरी उत्सव’-
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से सवा माह (चालीस दिन) के लिए ‘गवरी उत्सव’ मनाया जाता है। प्रथम दिन देवी के मन्दिर में गवरी के मुख्य पात्र राई-चूडिय़ा को गांव के प्रतिष्ठित पंचों के समक्ष भोपे के हाथों से ही पोशाक पहना कर उत्सव का आगाज होता है। इसमें छह प्रकार के पात्र देव, दनुज, मानव, पशु, खेचर और जलचर होते हैं। इस लोक नृत्य की खासियत यह है कि इसमें रम्मत, गम्मत, घई व राई का सुन्दर मिलाजुला रूप दिखता है। मुख्य भूमिका में बूडिय़ा, राइयां, भोपा और कुटकुटिया होते हैं।
सिर्फ पुरुष ही करते हैं नृत्य-
गवरी नृत्य की खूबी यह है कि इसमें सिर्फ भील पुरुष ही भाग लेते हैं। स्त्री पात्र का अभिनय भी पुरुषों द्वारा किया जाता है। वे स्त्री भेष धारण कर इसमें भाग लेते हैं। एक दल में 35 से 200 तक पात्र होते हैं। इसमें छोटी-छोटी कई लघु नाटिकाओं का मंचन किया जाता है, जिनकी कथाएं भागवत, मार्कण्डेय, पुराण, इतिहास, लोक संस्कृति पर आधारित होती हैं।
पात्रों की वेशभूषा भी आकर्षक-
गवरी की विशिष्टता उसके पात्रों की वेशभूषा एवं साज-सज्जा में निहित है। ‘बूडिय़ा’ गवरी नृत्य उत्सव का प्रमुख अभिनेता है, इसके मुंह पर लकड़ी का गोल मुखौटा बांधा जाता है, कमर में घुंघरुओं की माला ‘चौराई’ बांधी जाती है। बदन पर भगवा कपड़े का लपेटन तथा घुटने तक पजामा पहनाया जाता है।
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