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क्यों नहीं रूक रहा पुलिस कस्टडी में मौतों का सिलसिला, हर बार क्यों बंद मिलते है सीसीटीवी कैमरे???? सुप्रीम कोर्ट, मानवाधिकार आयोग के आदेशों की धज्जियां

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24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। राजस्थान में पुलिस हिरासत में हो रही मौतों का आंकड़ा थम ही नहीं रहा है। यह सभ्य समाज के लिए एक गहरे कलंक से कम नहीं है। इन मौतों के बाद जब थानों में जनता के पैसों से जनता की सुविधा के लिए लगाए गए सीसीटीवी कैमरों की फुटेज मांगी जाती है तो आखिर ऐसा कैसे होता है कि हर बार कैमरे बंद मिलते हैं। तरह तरह के बहाने बना कर सीसीटीवी फुटेज नहीं दिए जाते। चाहे जितना आंदोलन हो, शोर शराबा हो, धरना प्रदर्शन हो, पुलिस को कोई फर्क नहीं पड़ता। जब उपर से कभी सीसीटीवी के आदेश हो भी जाते हैं तब भी उन्हें बेकअप उपलब्ध नहीं होने के कारण डिलीट होना बता दिया जाता है। खास बात ये है कि इस काम में नेताओं व जन प्रतिनिधियों की भी मिलीभगत होती है। नेता आंदोलन के समय जनता के साथ खड़े होते हैं लेकिन ये कभी भी सीसीटीवी फुटेज की खुद मांग नहीं करते, ना ही इस मुद्दे को आगे बढ़ाते हैं।
देश के जाने माने आरटीआई एक्टिविस्ट और पत्रकार जयवंत भैरविया ने आरटीआई के माध्यम से कुछ तथ्य जुटाए हैं जिनसे यह साफ हो रहा है कि सीसीटीवी फुटेज देने में टालमटोल का खेल चल रहा है। जबकि होना यह चाहिए कि अगर सब कुछ पाक साफ है तो पुलिस खुद सीसीटीवी के वीडियो को हर घटना के बाद जनता के सामने आखिर क्यों नहीं रख देती??? यह मुद्दा ना तो मजाक है ना ही इसे हल्के में लेने की जरूरत है क्योंकि हर बार कस्टडी में मौत लोगों की आत्मा को हिला कर रख देती है। मगर सुनियोजित रूप से उसे भुला दिया जाता है। घटनाओं पर बड़ी ही सफाई से साम, दाम, दंड भेद का गेम खेल कर पर्दा डाल दिया जाता है।
आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2001 में डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल प्रकरण में और वर्ष 2020 में परमवीर सिंह सैनी बनाम बलजीत सिंह मामले में स्पष्ट आदेश दिए थे कि पुलिस हिरासत में पारदर्शिता, निष्पक्षता और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए देश के हर पुलिस थाने व जांच एजेंसी में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं, उनकी रिकॉर्डिंग कम से कम 18 महीने तक सुरक्षित रखी जाए और जांच की स्थिति में फुटेज उपलब्ध कराई जाए। इसके बावजूद राजस्थान में न थानों में कस्टडी मौतें रुक रही हैं और न ही पीड़ितों या जनता को सीसीटीवी फुटेज मिल रही है। जब सर्वोच्च न्यायालय और राज्य सूचना आयोग ने बार-बार निर्देश दिए हैं, तो फिर क्यों हर बार कैमरे खराब होने, फुटेज न होने या तकनीकी खराबी का बहाना बनाया जाता है? क्या यह बहाने जिम्मेदारी से बचने का तरीका नहीं हैं? यदि पुलिस के कार्य सही और पारदर्शी हैं, तो सीसीटीवी फुटेज जारी करने में समस्या क्या है? सवाल साफ है कि क्या आदेशों का पालन न कर, पुलिस खुद यह स्वीकार नहीं कर रही कि थानों के भीतर कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे वह जनता और अदालत से छिपाना चाहती है?
राजस्थान में इस आदेश के अनुपालन के लिए एसओपी भी बनाई गई, जिसके तहत प्रत्येक थाने में सीसीटीवी संचालन के लिए दो कार्मिकों को प्रशिक्षण देने का प्रावधान था। स्टेट क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो ने 16 नवंबर 2023 को आदेश जारी कर जिला स्तर पर आपराधिक मामलों, परिवादों और आरटीआई आवेदनों में सीसीटीवी फुटेज उपलब्ध कराना सुनिश्चित करने के निर्देश दिए। राज्य सूचना आयोग ने भी कई फैसलों जैसे 18 सितंबर 2023 (आरुषि जैन बनाम राज्य लोक सूचना अधिकारी), 18 नवंबर 2024 (लक्ष्मी देवी प्रकरण) और 6 सितंबर 2024 (शारदा देवी प्रकरण) में साफ कहा कि थानों में कैमरे गोपनीयता के लिए नहीं बल्कि पारदर्शिता और तथ्यों की प्रमाणिकता के लिए लगाए गए हैं, इसलिए इन्हें सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 8(1) के तहत छूट नहीं दी जा सकती। उदयपुर के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गोपाल स्वरूप मेवाड़ा ने भी आरटीआई तहत सीसीटीवी फुटेज देने के आदेश जारी किए थे।

फिर भी आदेशों की धज्जियां उड़ती रहीं
उदयपुर जिले में ही मार्च 2023 में परसाद थाने में अर्जुन मीणा, मई 2023 में गोगुंदा थाने में सुरेंद्र देवड़ा और नवंबर 2024 में सुखेर थाने में तेजपाल मीणा की पुलिस कस्टडी में मौत हो चुकी है। इसी वर्ष अलवर में अमित सैनी, झुंझुनूं में पप्पूराम मीणा की मौत हुई। खेरवाड़ा थाने में अभिषेक मीणा के साथ बेरहमी से मारपीट और ऋषभदेव थाने में सुरेश पंचाल की मौत के मामले भी सामने आए हैं। आश्चर्य की बात है कि इन घटनाओं में पुलिस की तरफ से अक्सर वही पुराने बहाने सुनने को मिलेकृ“सीसीटीवी कैमरे खराब थे, हार्ड डिस्क खराब हो गई, रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है, जांच चल रही है, फुटेज देने से मुखबिरों की पहचान उजागर हो जाएगी या जब्त माल की जानकारी बाहर आ जाएगी।”
जबकि राज्य सूचना आयोग के आदेश स्पष्ट हैं कि सीसीटीवी फुटेज सार्वजनिक हित में दी जानी चाहिए और थानों में कैमरे जनता की सहूलियत के लिए हैं, न कि पुलिस के आंतरिक कामकाज को ढकने के लिए। सवाल उठता है कि अगर पुलिस सही है, तो फुटेज देने में हिचक क्यों?

आरटीआई से हुआ खुलासा, कैमरे ‘तकनीकी कारणों’ से बंद
हाल ही में अलवर थाने से मांगी गई आरटीआई में 7 से 9 जुलाई 2025 की फुटेज मांगी गई थी, जिस पर थाने का जवाब था कि “इलेक्ट्रॉनिक तकनीकी कारणों” से कैमरे बंद थे, इसलिए रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है। यही हाल पहले भी कई मामलों में देखने को मिला, जब गोगुंदा और परसाद थानों की फुटेज “नष्ट” होना बताई गई और सुखेर थाने में घटना के समय कैमरे “बंद” पाए गए।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का खुला उल्लंघन
डी.के. बसु मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 11 बिंदुओं पर स्पष्ट निर्देश दिए थेकृजैसे गिरफ्तारी करने वाले पुलिसकर्मी की पहचान दर्ज करना, गिरफ्तारी मेमो तैयार कर गवाह से सत्यापित कराना, परिजनों को तुरंत सूचना देना, हर 48 घंटे में मेडिकल जांच कराना, और नियंत्रण कक्ष को गिरफ्तारी की जानकारी देना। इसके अलावा, पुलिस को हर महीने मानवाधिकार आयोग को रिपोर्ट भेजनी थी। वर्ष 2005 में राजस्थान के तत्कालीन आईजीपी ने सभी जिला पुलिस अधीक्षकों को इन आदेशों की पालना के निर्देश भी दिए थे। लेकिन हालात बताते हैं कि न मासिक रिपोर्टें समय पर भेजी जा रही हैं, न सीसीटीवी व्यवस्था पारदर्शी है, और न ही हिरासत में मौतों का सिलसिला थम रहा है।

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