24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। क्या उदयपुर का वन विभाग और उसके अफसर अब केवल नेताओं और प्रभावशाली लोगों का ही काम करते हैं? क्या वे सिर्फ उन्हीं के हितों की रक्षा के लिए जनता के सूचना के अधिकार की बलि देने को हरदम तैयार रहते हैं? क्या सार्वजनिक संसाधनों पर खुद को चौकीदार समझने वाले ये अफसर अब चौधरी बन बैठे हैं, जो किसी प्रभावशाली व्यक्ति के इशारे पर गोपनीयता की चादर ओढ़ लेते हैं? यदि जमीन पर कुछ गलत हो चुका है और उसे उजागर करने के लिए कोई नागरिक आरटीआई लगाता है तो क्या उसे गुनहगार समझा जाएगा? यह सवाल इसलिए अहम हो गया है क्योंकि वन विभाग की जमीन की रक्षा करने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों की है, वे खुद जनता के सवालों से मुंह चुराते नजर आ रहे हैं।
हाल ही में एक आरटीआई के जवाब में वन विभाग की ओर से जिस प्रकार की बेरुखी और सीनाजोरी वाला रवैया सामने आया, वह न केवल हैरान करने वाला है बल्कि चिंताजनक भी है। विभाग की जमीन पर होटल बन चुका है, मगर जब यह पूछा गया कि क्या विभाग ने कोई अनुमति दी है तो जवाब देने की बजाय आवेदक को ही दोषी ठहरा दिया गया। विभाग के अफसर इस तरह व्यवहार कर रहे हैं जैसे सूचना मांगकर कोई बड़ा अपराध कर लिया गया हो।
सीसारमा की जमीन पर होटल, गूगल मैप दिखा रहा होटल तो विभाग कह रहा, सवाल मत पूछो
मुख्य वन संरक्षक कार्यालय में देश के प्रख्यात आरटीआई एक्टिविस्ट और पत्रकार जयवंत भैरविया ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत अलग-अलग आवेदन किए गए, जिनमें से तीन पर विभाग की ओर से ‘आदेश’ पारित किए गए। इन आवेदनों में विभागीय अनियमितताओं, भ्रष्टाचार और अधिकारियों द्वारा पद के दुरुपयोग से संबंधित सूचनाएं मांगी गई थीं।
एक आरटीआई में सीसारमा क्षेत्र की उस जमीन पर सवाल किया गया जो विभागीय रिकॉर्ड में वन विभाग की दिख रही है लेकिन गूगल मैप पर उसी स्थान पर एक बड़ा होटल बना हुआ है। आरोप है कि यह होटल 340 कमरों वाला सेवन स्टार होटल है, जो स्पष्ट रूप से वन विभाग की भूमि पर बना हुआ प्रतीत होता है। आवेदक ने यह जानकारी मांगी कि क्या इस होटल को निर्माण, एनओसी या पर्यावरणीय स्वीकृति विभाग ने दी है? इसके जवाब में विभाग ने सूचना देने की बजाय आवेदक की मंशा पर सवाल उठा दिए।
सुनवाई 23 दिसंबर की, आदेश 23 जून का तो अपलोड किया जुलाई में!
इस आवेदन की प्रथम अपील की सुनवाई 23 दिसंबर 2024 को तय की गई, लेकिन इसका आदेश 7 महीने बाद 23 जून 2025 को पारित किया गया और जुलाई में ऑनलाइन अपलोड किया गया। इतना ही नहीं, आदेश में लिखा गया कि “अपीलार्थी सूचना प्राप्ति हेतु गंभीर नहीं है और सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग कर रहा है, अतः अपील निरस्त की जाती है।“ यह आदेश खुद सीसीएफ सुनील चिंद्री द्वारा पारित किया गया। जरा तारीखों पर गौर कीजिए। कब आवेदन किया गया, कब आदेश पारित किया गया? आवेदक का कहना है कि उन्हें सुनवाई संबंधी कोई सूचना नहीं मिली। यह आजकल आरटीआई से मना करने का आजमाया हुआ पैंतरा होता जा रहा है। इसके बाद भी यदि उस दिन सुनवाई हुई तो दो लाइन का आदेश देने में इतना समय कैसे लग गया??? इतने व्यस्त और इतने वीआईपी तो सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग भी नहीं हैं। आदेश की यह लेटलतीफी कहीं आफ्टर थॉट तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी ने इनको भी आदेश डिक्टेट तो नहीं करवाया???
हद है, खुद के खिलाफ आरटीआई की सुनवाई खुद कर रहे अफसर
सबसे हैरानी की बात यह रही कि जिनके खिलाफ सूचना मांगी गई सीसीएफ सुनील चिंद्री, वही अधिकारी अपील की सुनवाई भी खुद कर रहे हैं। यह सीधे-सीधे “प्राकृतिक न्याय“ के सिद्धांतों का मजाक है। यदि किसी वरिष्ठ अधिकारी को इतना भी बोध नहीं कि जिस पर आरोप है स्वयं अपने ही मामले की सुनवाई नहीं कर सकता, तो यह उसके ज्ञान और नैतिकता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है। यदि अफसर खुद सुनवाई करेगा तो नियमों का मजाक बनाना तय है।
दूसरी आरटीआई में मांगी गई निजी और सरकारी वाहनों की जानकारी, मिला वही ‘कॉपी-पेस्ट’ जवाब
दूसरे आवेदन में यह जानकारी मांगी गई कि सीसीएफ सुनील चिंद्री किस वाहन का उपयोग कर रहे हैं, क्या उस पर लाल नीली बत्ती लगी है, और उसका रजिस्ट्रेशन नंबर क्या है? साथ ही पूछा गया कि उनके बंगले पर घरेलू कार्यों के लिए वन विभाग के किन-किन कर्मचारियों को नियुक्त किया गया है और उन्हें कितनी तनख्वाह मिलती है? इसके अतिरिक्त यह भी पूछा गया कि उनका गृह जिला क्या है, वे उदयपुर में कितने वर्षों से पदस्थ हैं और क्या उन्होंने वन विभाग के कर्मचारियों को निजी कुत्ते की देखभाल के लिए अधिकृत किया है? इन सभी प्रश्नों का जवाब वही पुराना कॉपी-पेस्ट जवाब था – “आवेदक गंभीर नहीं प्रतीत होता।“
तीसरे आवेदन में मांगी गई ‘लाल बत्ती वालों’ की सूची, मगर जवाब फिर वही – आवेदक ही दोषी!
तीसरे आवेदन में वन विभाग के उन अधिकारियों और कर्मचारियों के नाम व पदनाम मांगे गए, जिनके निजी या सरकारी वाहनों पर लाल पट्टी, “राजस्थान सरकार“ लिखा हुआ हो या फिर लाल नीली बत्ती लगी हो। इसमें रजिस्ट्रेशन नंबर की भी जानकारी मांगी गई थी। इस आवेदन को भी उसी तरह ‘असंजीदगी’ का नाम देकर खारिज कर दिया गया। एक ही जवाब तीनों आवेदनों में कॉपी पेस्ट की कला का मुजाहिरा करते हुए एक सा जवाब चिपका दिया गया।
कानून की अवहेलनाः तय 45 दिन में सुनवाई नहीं, आदेश देने में लगे सात महीने
सूचना अधिकार अधिनियम के अनुसार प्रथम अपील की सुनवाई 45 दिन में अनिवार्य है, लेकिन यहां आदेश देने में सात महीने लगा दिए गए और जवाब में तथ्यों की बजाय तंज परोसे गए। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब विभाग खुद पारदर्शिता से डरने लगे तो कैसे उस पर भरोसा किया जा सकता है?
करणी माता रोपवे व अन्य वाणिज्यिक गतिविधियों पर भी नहीं दे रहा जवाब
उदयपुर में करणी माता रोपवे के संचालन व परमिशन से जुड़ी आरटीआई पर भी विभाग जानकारी नहीं दे रहा। जबकि यदि यह वन भूमि या इको सेंसिटिव जोन में आता है तो यह सीधे-सीधे नियमों का उल्लंघन है।
सूचना मांगना गुनाह, जवाब देना ‘मेहरबानी’?
सवाल स्पष्ट हैं कि जब वन विभाग की सरकारी जमीन पर वाणिज्यिक निर्माण हो रहा है, नियमों की अनदेखी हो रही है, तब उसका जवाब देने से विभाग क्यों कतरा रहा है? क्या अफसरों का कोई आर्थिक हित है, राजनीतिक आकाओं से वे दबे जा रहे हैं या फिर कोई और वजह है? आरटीआई जैसी संवैधानिक प्रक्रिया को यदि इसी तरह मजाक बना दिया जाएगा तो पारदर्शिता की उम्मीदें भी दम तोड़ देंगी। क्या हमारे जनप्रतिनिधि इस पर संज्ञान लेंगे? क्या राज्य सरकार इस ‘भांग मिले सिस्टम’ की जांच कराएगी? अब समय है कि जनहित में उठ रही आवाजों को दबाने की बजाय उन्हें सुना जाए क्योंकि ये सवाल जनता के हैं, और जवाब भी जनता को ही मिलना चाहिए।
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