24 News update उदयपुर . उदयपुर में आयड़ नदी पर करोड़ों रुपये खर्च कर किए गए सौंदर्यीकरण कार्य मानसून की तेज बारिश में बह गए, लेकिन इस भारी नुकसान का जायजा लेने शहर विधायक ताराचंद जैन और नगर निगम आयुक्त अभिषेक खन्ना दो महीने बाद शुक्रवार को स्थल पर पहुंचे। यह देरी अपने-आप में प्रशासनिक लापरवाही को उजागर करती है। आश्चर्य की बात यह है कि इतने बड़े नुकसान की न तो कोई ऑडिट कराई गई और न ही अब तक किसी तरह की तटस्थ जांच का आदेश दिया गया। इससे यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर विकास के नाम पर खर्च हुए रुपए का हिसाब कौन देगा?
निरीक्षण के दौरान जो पाँच टीमें बनाई गईं, उनमें वे ही निगम अधिकारी, कर्मचारी और स्थानीय नेता शामिल थे, जिन पर पहले भी लापरवाही और काम की गुणवत्ता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। यह बात शहरवासियों को और भी चिंतित करती है, क्योंकि जांच उन्हीं लोगों से करवाई जा रही है जिन पर सवाल हैं। इतना महत्वपूर्ण तथ्य कहीं भी सार्वजनिक नहीं किया गया। इससे पारदर्शिता पर गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं।
टीमों की रिपोर्ट में सामने आया कि नदी में लगाए गए कई पत्थर तेज बहाव में बह गए और कुछ पत्थरों के नीचे की मिट्टी खिसक गई। ठेकेदार को इन्हें फिर से लगाने और क्षतिग्रस्त हिस्सों को बदलने के निर्देश दिए गए। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि नुकसान का वित्तीय आकलन अब तक नहीं किया गया है। पिछले वर्ष भी इसी तरह पत्थर बहने और निर्माण क्षति के मामले सामने आए थे, लेकिन उस समय भी न सख्त जांच हुई और न ही किसी पर उत्तरदायित्व तय किया गया।
आयड़ नदी में अतिक्रमण का मामला भी निरीक्षण के दौरान उजागर हुआ। यूडीए अधिकारियों ने पहले भी ऐसे अतिक्रमण चिन्हित किए थे, लेकिन कार्रवाई अधूरी रही। इस बार विधायक ने अतिक्रमण हटाने के निर्देश दिए हैं, पर कब और कैसे कार्रवाई होगी—इस पर कोई स्पष्टता नहीं दी गई। इससे यह संदेह और गहरा हो जाता है कि क्या यह केवल औपचारिकता थी या वास्तव में ठोस कार्रवाई होगी।
नदी में किए गए पौधारोपण का निरीक्षण करने पर सामने आया कि तेज बहाव के कारण बड़ी संख्या में पौधे बह गए या गिर गए। निगम आयुक्त ने इन्हें फिर से लगाने के निर्देश दिए, लेकिन लगातार तीसरे वर्ष पौधारोपण के नुकसान की पुनरावृत्ति होने के बाद भी कोई स्थायी समाधान तलाशा नहीं गया है। इससे करोड़ों की हरियाली योजना पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है।
जाली और रेलिंग की स्थिति का निरीक्षण करने पर कुछ हिस्से टूटे पाए गए। इन्हें ठीक करने के निर्देश दे दिए गए, लेकिन गुणवत्ता पर सवाल का उत्तर किसी अधिकारी ने नहीं दिया। क्या निर्माण मानकों के अनुरूप काम नहीं हुआ था? या फिर निगरानी में खामी रही? यह सवाल निरीक्षण के दौरान अनुत्तरित ही रहे।
नदी में सफाई व्यवस्था भी कई जगह असंतोषजनक मिली। कचरा, घास और बहकर आई मिट्टी को हटाने के निर्देश दिए गए। जेसीबी से मिट्टी निकालने का काम चल रहा था, लेकिन सफाई व्यवस्था की स्थायी मॉनिटरिंग पर कोई चर्चा नहीं हुई। यह अस्थायी काम हर साल दोहराया जाता है, जबकि समस्या मूल रूप से संरचनात्मक है।
आयड़ पुलिया के पास नदी पेटे में बने देवरे को शिफ्ट करने पर पुजारी और भक्तों से चर्चा कर सहमति बनाई गई। इसे नदी संरक्षण की दिशा में सकारात्मक कदम माना जा सकता है। वहीं, आवारा मवेशियों को पकड़ने और नदी में कचरा फेंकने वालों पर जुर्माना लगाने जैसी तात्कालिक कार्रवाई भी की गई। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब नदी में सौंदर्यीकरण पर करोड़ों रुपये खर्च हो चुके थे, तो इन कार्यों की गुणवत्ता की तटस्थ जांच क्यों नहीं की गई? नुकसान का मूल्यांकन क्यों नहीं हुआ? और जिन पर काम की निगरानी की जिम्मेदारी थी, वही जांच दल का हिस्सा क्यों बनाए गए? यह पारदर्शिता की गंभीर कमी और जिम्मेदारी तय न होने की समस्या को उजागर करता है।
इस पूरे प्रकरण में जनता का पैसा बहा, लेकिन जवाबदेही बहाल नहीं हुई। अब समय आ गया है कि प्रशासनिक तंत्र और जनप्रतिनिधि दोनों मिलकर यह सुनिश्चित करें कि भविष्य में विकास कार्य केवल कागजों में नहीं बल्कि जमीन पर टिकाऊ रूप में दिखाई दें।
आयड़ का सच: दो महीने बाद जागा प्रशासन, जांच उन्हीं से जिन पर सवाल! करोड़ों का विकास बह गया—न ऑडिट, न जवाबदेही

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