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आरटीआई से बेचैन हुआ सीएमएचओ दफ्तर, सिल गए होंठ, कांप गई कलम

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24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। उदयपुर के निजी अस्पतालों की व्यवस्थाओं पर लगाई गई आरटीआई से सीएमएचओ दफ्तार बेचैन हो गया व अपने चहेते अस्पतालों और वहां पर पनप रही कुछ गंभीर ‘‘बीमारियों’’ और अव्यवस्थाओं पर खुद ही पर्देदारी शुरू कर दी। अपने होठ सिल लिए और बहाने बनाते हुए आवेदन ही खारिज कर दिए। प्रमुख निजी अस्पतालों में आपातकालीन स्वास्थ्य सुविधाएं, रैम्प जैसी आवश्यक संरचनात्मक व्यवस्थाएं, सड़क दुर्घटनाओं में घायल गंभीर रोगियों को इलाज से वंचित कर राजकीय महाराणा भूपाल अस्पताल में रेफर करने की घटनाएं और सुरक्षा के नाम पर आईसीयू के बाहर व अंदर बाउंसरों की तैनाती जैसे कई गंभीर विषयों को लेकर सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत अंतर्गत मांगी गई जानकारी पर चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, उदयपुर (सीएमएचओ कार्यालय) द्वारा कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया गया। इससे ना केवल सरकारी पारदर्शिता पर सवाल खड़े हो गए हैं बल्कि आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था की जमीनी सच्चाई भी सामने आई है।
देश के जाने माने एक्टिविस्ट और पत्रकार जयवंत भैरविया ने 1 जनवरी 2025 से 1 जुलाई 2025 की अवधि में सड़क दुर्घटनाओं में घायल उन नागरिकों की विस्तृत सूची मांगी थी जिन्हें इलाज नहीं मिलने अथवा स्वास्थ्य की गंभीर स्थिति के कारण जेके पारस अस्पताल, पेसिफिक मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल तथा गीतांजलि मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल से राजकीय महाराणा भूपाल अस्पताल सहित अन्य अस्पतालों में रेफर किया गया। जानकारी के साथ यह भी पूछा गया था कि संबंधित अस्पतालों के पास उच्च स्तरीय क्रिटिकल केयर सुविधाएं और प्रशिक्षित चिकित्सक उपलब्ध हैं या नहीं।
इसके अतिरिक्त, यह भी पूछा गया कि क्या इन अस्पतालों में आगजनी जैसी आपदा की स्थिति में भर्ती रोगियों को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए रैम्प की व्यवस्था है अथवा नहीं। क्या इन अस्पतालों ने आईसीयू के बाहर बाउंसर लगाने की अनुमति सीएमएचओ विभाग से ली है और यदि ली है तो उसके लिए क्या नियमावली तय की गई है। इसी प्रकार यह भी जानना चाहा गया कि गंभीर रोगियों को इलाज से इनकार करने पर ऐसे अस्पतालों पर किस प्रकार की वैधानिक कार्यवाही की जा सकती है और क्या उदयपुर सीएमएचओ कार्यालय के पास ऐसे मामलों के लिए कोई तय प्रोटोकॉल है।
इतना ही नहीं, यह भी पूछा गया कि राज्य सरकार द्वारा क्लिनिकल इस्टेब्लिशमेंट एक्ट के अंतर्गत जारी किए गए वे मापदंड भी साझा किए जाएं जो रैम्प जैसी अनिवार्य सुविधाओं से संबंधित हैं और जिनका अनुपालन प्रत्येक निजी अस्पताल को करना आवश्यक है।
इन सभी अत्यंत संवेदनशील और जनहित से जुड़े सवालों पर सीएमएचओ कार्यालय, उदयपुर द्वारा या तो जानकारी देने से मना कर दिया गया अथवा आवेदन को ही निरस्त कर दिया गया। यह स्थिति न केवल सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 की भावना के विपरीत है, बल्कि प्रशासनिक सुधार विभाग द्वारा समय-समय पर जारी दिशानिर्देशों की भी खुलेआम अवहेलना है। उपलब्ध कराई जाने वाली सूचना में संबंधित लोक सूचना अधिकारियों, अधिकारियों के नाम, पदनाम, मोहर, ईमेल आईडी, दूरभाष संख्या और कार्यालय का पता तक सम्मिलित नहीं किया गया, जबकि नियमों के अनुसार यह जानकारी अनिवार्य होती है।
इस पूरे प्रकरण ने चिकित्सा क्षेत्र में जवाबदेही और पारदर्शिता की गम्भीर कमी को उजागर किया है। जब शहर के नामी अस्पतालों में आपातकालीन सुविधाएं संदिग्ध हों और प्रशासन उनसे जुड़ी जानकारी देने से बचता रहे, तो यह चिकित्सा प्रणाली की साख पर सीधा प्रश्नचिह्न बन जाता है। मिलीभगत की ओर इशारा भी करता है।
यदि दुर्घटनाओं में घायल गंभीर मरीजों को निजी अस्पताल प्राथमिक उपचार तक नहीं देते और बिना समुचित कारणों के राजकीय अस्पताल रेफर कर देते हैं, तो यह मानव जीवन के साथ खिलवाड़ है। राज्य सरकार और स्वास्थ्य विभाग को इस विषय में गंभीरता से हस्तक्षेप करते हुए अस्पतालों की कार्यप्रणाली की जांच करनी चाहिए और दोषी संस्थानों पर नियमानुसार कार्यवाही सुनिश्चित करनी चाहिए। सांसद व विधायक को भी इस मामले को संज्ञान में लेते हुए तुरंत दखल देनी चाहिए।

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