24 न्यूज अपडेट,नेशनल डेस्क। बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले शुरू हुई मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया (Special Intensive Revision – SIR) को लेकर राजनीतिक और कानूनी टकराव अपने चरम पर है। इस मुद्दे पर दायर याचिका पर अब सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए हामी भर दी है। अदालत 10 जुलाई को इस संवेदनशील मामले पर विचार करेगी, जिसमें चुनाव आयोग के 24 जून को जारी उस आदेश को चुनौती दी गई है, जिसके तहत राज्य में सभी मतदाताओं को अपने नागरिकता से जुड़े दस्तावेज जमा कराने का निर्देश दिया गया है।
यह याचिका गैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने दायर की है, जिसमें कहा गया है कि चुनाव आयोग का यह कदम संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 325 और 326 के साथ-साथ जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और रजिस्ट्रेशन ऑफ इलेक्टर्स रूल्स 1960 के नियम 21A का स्पष्ट उल्लंघन करता है। याचिका में इसे “गैर-कानूनी और असंवैधानिक” ठहराया गया है।
राजनीतिक मोर्चे पर यह मामला तेजी से गरमाया है। कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, वाम दलों और अन्य INDIA गठबंधन की पार्टियों ने चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया को अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़ों और प्रवासी मजदूरों को मतदाता सूची से बाहर करने की “पूर्वनियोजित साजिश” बताया है। विपक्षी दलों का कहना है कि यह मतदाता अधिकारों की डकैती और एक प्रकार का ‘गुप्त एनआरसी’ है, जिसे चुनाव से ठीक पहले लागू कर लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार किया जा रहा है। महागठबंधन नेता तेजस्वी यादव ने ऐलान किया है कि अगले सप्ताह राज्यव्यापी चक्का जाम किया जाएगा, जबकि जन अधिकार पार्टी के प्रमुख पप्पू यादव ने 9 जुलाई को बिहार बंद की घोषणा की है।
वहीं, चुनाव आयोग ने इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए दावा किया है कि यह पूरी प्रक्रिया लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम और भारतीय संविधान की धारा 326 के तहत की जा रही है। आयोग का कहना है कि इससे किसी भी वैध मतदाता का नाम सूची से नहीं हटेगा, बल्कि उन व्यक्तियों की पहचान की जाएगी जिन्होंने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर या विदेशी नागरिक होते हुए मतदाता सूची में नाम जुड़वाया है।
चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि विशेष पुनरीक्षण प्रक्रिया के तहत हर मतदाता को व्यक्तिगत रूप से फॉर्म भरना अनिवार्य होगा। विशेष रूप से जुलाई 1987 के बाद जन्मे या 1 जनवरी 2003 के बाद वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने वाले नागरिकों को जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट या किसी शैक्षणिक दस्तावेज के जरिए अपनी नागरिकता सिद्ध करनी होगी। राज्य से बाहर रहने वाले वोटरों को भी फॉर्म भरकर दस्तावेज अपलोड करने होंगे, जिसकी अंतिम तिथि 26 जुलाई तय की गई है। ऐसा नहीं करने पर संबंधित व्यक्ति का नाम मतदाता सूची से हटाया जा सकता है।
इस प्रक्रिया की टाइमिंग को लेकर विपक्ष ने गंभीर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि 2003 के बाद बीते दो दशकों में बिहार में कई चुनाव हो चुके हैं, यदि मतदाता सूची में गड़बड़ी थी तो पहले क्यों नहीं सुधारी गई? विपक्ष का तर्क है कि अगर SIR आवश्यक थी भी, तो उसे चुनाव के बाद कराया जा सकता था, ना कि उस वक्त जब चुनाव सिर पर हैं। साथ ही विपक्ष ने यह भी सवाल उठाया है कि जिन गरीब और ग्रामीण परिवारों के पास जन्म प्रमाणपत्र या माता-पिता के दस्तावेज नहीं हैं, वे नागरिकता कैसे प्रमाणित करेंगे?
चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया से तकरीबन दो करोड़ मतदाताओं के सूची से बाहर होने की आशंका जताई गई है। इसमें बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी, प्रवासी मजदूर, अल्पसंख्यक और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोग शामिल हैं। यदि उनका नाम सूची से हटाया गया और चुनाव घोषित हो गया, तो वे न तो पुनः पंजीकरण करवा पाएंगे और न ही कोर्ट में अपील कर सकेंगे, क्योंकि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद अदालतें चुनाव संबंधी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करतीं।
विपक्ष ने यह भी आशंका जताई है कि उत्तर बिहार में आने वाले दिनों में बाढ़ की स्थिति बनेगी, जिससे प्रभावित क्षेत्रों में लोग आवश्यक दस्तावेज जुटाने और समय पर फॉर्म भरने में असमर्थ होंगे। साथ ही, बड़ी संख्या में बिहार के नागरिक राज्य से बाहर मजदूरी करते हैं, जो इस गणना प्रक्रिया के दौरान घर पर मौजूद नहीं होंगे।
सियासत की इस घमासान में अब निगाहें सुप्रीम कोर्ट की 10 जुलाई को होने वाली सुनवाई पर टिक गई हैं, जो यह तय करेगी कि चुनाव आयोग की यह प्रक्रिया संविधान के अनुरूप है या नहीं। यह मामला न केवल बिहार विधानसभा चुनाव बल्कि पूरे देश में भविष्य में होने वाली मतदाता पहचान की प्रक्रियाओं के लिए भी एक अहम मिसाल बन सकता है।
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