
24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। जनजातीय क्षेत्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान विद्यापीठ (डीम्ड-टू-बी विश्वविद्यालय) के संघटक लोकमान्य तिलक शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय की ओर से आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी ‘शांति शिक्षा – विचार एवं कर्म’ का शनिवार को गरिमामय समापन हुआ। संगोष्ठी में भारत सहित छह देशों से आए 258 से अधिक शिक्षाविदों, शोधार्थियों और विशेषज्ञों ने सहभागिता की। संगोष्ठी का शुभारंभ अतिथियों द्वारा माँ सरस्वती की प्रतिमा पर पुष्पांजलि एवं दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता कुलपति प्रो. एस.एस. सारंगदेवोत ने की। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा कि शांति मन की एक ऐसी स्थिति है जो बाह्य और आंतरिक दोनों स्तरों पर स्थापित होती है। भीतरी शांति से ही आनंद संभव है। उन्होंने बताया कि सत्य और प्रसन्नता के साथ ज्ञान प्राप्त कर ही शांति मिलती है। विश्वास और आत्मविश्वास के सहारे संतोष की ओर अग्रसर होकर हम शांति के मार्ग को प्रशस्त कर सकते हैं। शरीर और मस्तिष्क की शुद्धता तथा आध्यात्मिक उन्नति के बिना सच्ची शांति प्राप्त नहीं हो सकती।
प्रो. सारंगदेवोत ने वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में शांति स्थापना के लिए सकारात्मक चिंतन, सामाजिक मूल्यों और कृतज्ञता को जीवन में अपनाने की आवश्यकता बताई।
समापन सत्र के मुख्य अतिथि जल संरक्षण के क्षेत्र में विख्यात ’जलपुरुष’ डॉ. राजेन्द्र सिंह (वाटरमैन ऑफ इंडिया) रहे। उन्होंने अपने विचार रखते हुए कहा कि जल संरक्षण और प्रकृति के प्रति सद्भाव से भी शांति का मार्ग प्रशस्त होता है। उन्होंने कहा कि आज शिक्षा प्रणाली व्यक्तित्व निर्माण के बजाय भौतिक लालच को बढ़ावा दे रही है, जिससे हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है। शांति प्राप्ति के लिए सत्य की खोज आवश्यक है। उन्होंने शिक्षा को संस्कृति और प्रकृति के बीच समरसता स्थापित करने वाला माध्यम बनाने पर बल दिया और लक्ष्मी के लालच से ऊपर उठने की आवश्यकता जताई।
विशिष्ट अतिथि प्रो. विजयलक्ष्मी चौहान ने कहा कि शिक्षा को केवल डिग्री प्राप्त करने का साधन न मानकर मानवीय मूल्यों का संवाहक समझा जाना चाहिए। जब शिक्षा में करुणा, सहिष्णुता और सेवा के तत्व समाहित होंगे, तभी वैश्विक शांति संभव होगी। उन्होंने शांति की आवश्यकता को मनोवैज्ञानिक तथा बौद्धिक आधारों से भी रेखांकित किया। प्रारंभ में, महाविद्यालय की प्राचार्य प्रो. सरोज गर्ग ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि शिक्षा के माध्यम से स्थायी शांति प्राप्त करना संभव है और विचारों तथा कर्मों के संतुलन से ही यह फलीभूत होती है। संगोष्ठी की रिपोर्ट और अनुशंसाओं का वाचन डॉ. रचना राठौड़ ने किया। उन्होंने बताया कि संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में शांति शिक्षा के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पहलुओं पर गहन विमर्श हुआ। प्रतिभागियों ने संगोष्ठी को अत्यंत ज्ञानवर्धक और प्रेरणादायक बताते हुए अनुभव साझा किए।
कार्यक्रम के दौरान डॉ. अमित दवे की पुस्तक ’सफलता के शिखरों से हुंकार न भर’ का विमोचन भी अतिथियों द्वारा किया गया। इस पुस्तक में शांति शिक्षा से जुड़े नवीन शोध एवं विचार संकलित हैं। संचालन का दायित्व डॉ. अमी राठौड़ और डॉ. हरीश चैबीसा ने निभाया, जबकि आभार प्रदर्शन डॉ. सुनिता मुर्डिया ने किया।
संगोष्ठी में विशेष सहभागिता :
विदेश से आशीष दाधीच (बाली, इंडोनेशिया) सहित कई प्रतिभागी शामिल रहे। वहीं, गौरव भट्ट सहित अन्य भारतीय और विदेशी विद्वानों ने भी अपने विचार साझा किए। दो दिवसीय संगोष्ठी में 238 से अधिक शोधपत्रों का वाचन किया गया, जिनमें 85 ऑफलाइन और 153 ऑनलाइन प्रस्तुत हुए। विभिन्न सत्रों में ‘सार्वभौमिक शांति में शिक्षा की भूमिका’, ‘पारिवारिक मूल्यों की विरासत’, ‘आईक्यू, ईक्यू, एसक्यू के माध्यम से शांति’, ‘नीतियों द्वारा शांति एवं मूल्यों का पोषण’, ‘जल और शांति’ जैसे विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई। कोटा विश्वविद्यालय से डॉ. रश्मि बोहरा, परीक्षा नियंत्रक डॉ. पारस जैन, डॉ. युवराज सिंह, प्रो. मधु शर्मा, प्रो. एम.पी. शर्मा, डॉ. बी.एल. श्रीमाली, डॉ. अपर्णा श्रीवास्तव सहित विभिन्न डीन, निदेशक, विषय विशेषज्ञ, संकाय सदस्य और शोधार्थी मौजूद रहे। यह जानकारी राजस्थान विद्यापीठ के निजी सचिव श्री के.के. कुमावत द्वारा साझा की गई।
प्रमुख अनुशंसाएँ और सिफारिशें
एनईपी-2020 के तहत शांति विकास पर केंद्रित शिक्षा पाठ्यक्रमों को मजबूती से लागू किया जाए। शिक्षा प्रक्रिया में भारतीय दर्शन से जुड़े शांति और संतुलन के विचारों को शामिल किया जाए। शांति, सद्भाव, अहिंसा और मिलजुलकर रहने के तत्वों को शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में जोड़ा जाए। ध्यान, योग, प्रार्थना और जीवन कौशल कार्यक्रमों को विद्यालयीन दिनचर्या का अनिवार्य अंग बनाया जाए। बच्चों में मानव-पर्यावरण संबंध और भारतीय सांस्कृतिक विरासत की समझ विकसित करने के प्रयास हों। जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों के विकास के लिए परिवार और स्कूल दोनों स्तरों पर पहल जरूरी है। पाठ्यक्रम में स्थानीय सफलताओं और पर्यावरण-संबंधी अनुभवों को स्थान मिले।
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