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डीपीएस जमीन प्रकरण में नया खुलासाः 2012 में दे दिया था यूआईटी ने नोटिस, मिलीभगत के चलते नहीं हुई कार्रवाई

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24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। आप यूडीए से बहुत ही खास शर्तों पर कौड़ियों के दाम रियायती दरों पर जमीन आवंटित करवाने में अपनी पॉलिटिक एप्रोच और प्रशासनिक मिलीभगत से सफल हो जाते हैं तो उदयपुर में यह गांरटी है कि नीचे से उपर तक कितनी भी जांचें हो जाएं, आपको आंच नहीं आने वाली। सब तरफ सेटिंग चलेगी और बरसों तक विभाग फाइल को फुटबॉल बनाकर खेलेंगे। सूचनाओं पर कुंडली मारकर बैठेंगे और बहुत ज्यादा प्रेशर आने पर मनगढ़ंत सूचनाएं और रिपोर्ट आदि बनाकर बचने के रास्ते निकाल लेंगे। यह मॉडल इतना सफल और आजमाया हुआ है कि कागजों में दिखता हुआ सच भी जिंदा मक्खी की तरह निगल जाएंगे। डीपीएस का मामला गजब है। आदिवासी बच्चों को पढ़ाने के बहाने जमीन आवंटित करवा ली लेकिन आदिवासियों को पढ़ाने की नियमानुसार कोई पहल नहीं की। उससे भी ज्यादा हैरानी की बात है कि उदयपुर टीएसपी में आता है और यहां के जन प्रतिनिधि भी आदिवासी समाज से हैं लेकिन पॉलिटिकल पावर, प्रशासनिक धूर्तता और उपर तक मिलीभगत के चलते वे इतना भी साहस नहीं जुटा पा रहे हैं कि किसी भी सार्वजनिक मंच पर इस गोरखधंधे के सच को सच कह सकें।
दिल्ली पब्लिक स्कूल (डीपीएस), उदयपुर की जमीन आवंटन से जुड़ा मामला लगातार नए खुलासों के साथ और गंभीर होता जा रहा है। अब सामने आया है कि मार्च 2012 में ही तत्कालीन यूआईटी सचिव ने मंगलम एजुकेशन सोसायटी को नोटिस जारी कर आवंटन शर्तों की पालना पर सवाल उठाए थे, लेकिन पांच दिन बाद सोसायटी की लिखित सफाई को यूआईटी ने बिना ठोस जांच के सही मान लिया।

2005 में आवंटन, 2012 में नोटिस
भुवाणा विस्तार योजना में विद्यालय निर्माण के लिए 2 मार्च 2005 को मंगलम एजुकेशन सोसायटी को लगभग 7 एकड़ (3,04,920 वर्गफीट) जमीन आवंटित की गई थी। इस जमीन पर स्पष्ट शर्तें तय थी कि भूमि का उपयोग केवल शैक्षणिक प्रयोजनों के लिए होगा। 25 परसेंट सीटें एससी, एसटी, ओबीसी, विकलांग, शहीद सैनिकों और विधवाओं के बच्चों के लिए आरक्षित होंगी। इनमें 12 प्रतिशत एससी, 8 प्रतिशत एसटी और 3 प्रतिशत विकलांग बच्चों के लिए तय था। इन बच्चों से केवल 50 प्रतिशत फीस ली जानी थी।
14 मार्च 2012 को तत्कालीन सचिव, नगर विकास प्रन्यास (यूआईटी) ने नोटिस जारी कर कहा कि आवंटन पत्र की शर्तों की पालना पर कोई रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई है। उसी दिन शर्तों के अनुपालन संबंधी जानकारी प्रस्तुत करने को कहा गया और चेतावनी दी गई कि पालन नहीं होने पर भूमि निरस्त कर कार्रवाई की जाएगी। इसके बाद 19 मार्च 2012 को सोसायटी की ओर से यूआईटी को जवाब दिया कि “हमारी ओर से सभी शर्तों की पालना कर ली गई है“। यह दावा पूरी तरह झूठा था, क्योंकि न तो 25 परसेंट आरक्षित वर्गों के बच्चों को एडमिशन दिया गया, न ही आधी फीस पर पढ़ाई सुनिश्चित की गई। इसके बावजूद यूआईटी ने इस जवाब को सच मान लिया और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

असलियतः रियायती जमीन पर मुनाफाखोरी
तथ्य यह बताते हैं कि डीपीएस स्कूल ने आवंटन की शर्तों का कभी पालन नहीं किया। स्कूल ने केवल 2009 के आरटीई एक्ट का सहारा लिया, जबकि यह अलग विषय है। आरटीई के तहत 25 परसेंट सीटें सभी निजी स्कूलों को देनी होती हैं, लेकिन मंगलम सोसायटी को तो अतिरिक्त 25 परसेंट सीटें और भी देनी थीं। यानि डीपीएस को कुल 50 परसेंट बच्चों को आरक्षित वर्ग से लेना था, लेकिन वास्तव में ऐसा कभी नहीं हुआ।
आपको बता दें कि कांग्रेस शासन के अंतिम दिनों में भी मंगलम सोसायटी को लाभ पहुँचाया गया। एक लाख वर्गफीट जमीन पर वर्षों से डीपीएस का कब्जा था, उसे 60 समाजों की सूची में शामिल कर आधिकारिक तौर पर सौंप दिया गया। अब तक कुल करीब 4 लाख वर्गफीट सरकारी जमीन डीपीएस को सौंप दी जा चुकी है।

पत्रकार की शिकायत और जांच समिति
वरिष्ठ पत्रकार जयवंत भैरविया ने इस घोटाले की शिकायत करते हुए जमीन निरस्त करने की मांग की। इसके बाद नगरीय विकास विभाग ने 8 अप्रैल 2025 को यूडीए को जांच के आदेश दिए। आयुक्त राहुल जैन ने सचिव हेमेंद्र नागर की अध्यक्षता में समिति बनाई। 17 अप्रैल को सोसायटी को नोटिस भेजा गया। जांच रिपोर्ट में लिखा गया कि 2012-13 से 2024-25 तक डीपीएस ने आरटीई के तहत एडमिशन दिए हैं और हर साल सत्यापन हुआ है। इस आधार पर निष्कर्ष दिया गया कि शर्तों का पालन हुआ। यहाँ बड़ा सवाल यह उठता है कि जब आवंटन शर्तें और आरटीई एक्ट 2009 पूरी तरह अलग विषय हैं। यूडीए ने दोनों को एक जैसा व किसके कहने पर किसके दबाव में माना? विशेषज्ञों के अनुसार, यह सीधे-सीधे सोसायटी को बचाने और सरकार को गुमराह करने की कोशिश है। अब सवाल यह है कि जब जमीन गरीब और आदिवासी बच्चों की शिक्षा के नाम पर दी गई थी, तो आज तक उन बच्चों को उनका हक क्यों नहीं मिला?
सरकार और यूडीए की भूमिका भी कठघरे में है। यदि राज्य सरकार ने इस पर कड़ी कार्रवाई कर आवंटन निरस्त नहीं किया, तो यह साबित होगा कि नीतियां केवल कागजों पर गरीबों के लिए हैं और असल में इनका इस्तेमाल मुनाफाखोर शिक्षा व्यवसायियों को लाभ पहुँचाने के लिए किया जा रहा है।

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