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टिप्पणी : जो पुलिस ‘टस से मस’ नहीं होती, वो सुपरसोनिक रॉकेट कैसे हो गई?? हाईकोर्ट तक ने कह दिया— इतनी जल्दबाजी कैसे??? एसपी, आईओ हाजिर हों!! आईजी हाजिर हों!!!

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24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। क्या नंगी हो गई हैं सिस्टम की परतें? क्या यह जांच प्रक्रिया सबके लिए ऐसी ही होती है? उदयपुर शहर का माहौल इन दिनों असामान्य रूप से गर्म है। चाय-पान की दुकानों से लेकर बड़े व्यापारिक ठिकानों तक, हर जगह एक ही चर्चा है कि क्या पुलिस ने विक्रम भट्ट केस में रॉकेट लगाने वाली तेजी दिखाई? पुलिस इतनी चाक चौबंद और तेज तर्रार कब से हो गई?? क्या सब मामलों में हो गई?? या फिर केवल इस मामले में किसी पॉलिटिकल ओर ब्यूरोक्रेटिक वचन को निभाने के लिए पुलिस ने उस स्टाइल में काम दिया जिस स्टाइल में उसको हर मामलों में हर हाल में करना ही चाहिए होता है। पुलिस है ही इसीलिए।
यह सवाल यूं ही नहीं उठा कि पुलिस इस मामले में रॉकेट कैसे हो गई।
चट एफआईआर, पट गिरफतारी, चटपट रिमांड। मामला भी फिल्मी, पुलिस का काम भी फिल्मी। इंदिरा आईवीएफ वाले मामले की बात हो रही है यहां पर।
पुलिस की कार्रवाई की स्पीड इतनी ‘अस्वाभाविक’ है कि राजस्थान हाईकोर्ट, जोधपुर तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। अदालत ने बेबाक टिप्पणी कर दी कि पुलिस ने इतनी जल्दबाज़ी क्यों की? और इसके बाद उदयपुर SP व IO को तलब कर दिया।
यह स्थिति अपने आप में बयां कर रही है कि यह मामला एक सामान्य पुलिस कार्रवाई से बहुत आगे बढ़ चुका है। यह सुपर स्टार पुलिसिंग सिर्फ एक केस नहीं— यह पुलिस की प्राथमिकताओं, प्रक्रियाओं और ‘समानता’ पर उठ रहा बड़ा सार्वजनिक प्रश्न है।
अदालत की सख़्ती—कार्यवाही पर उठते गंभीर सवाल
राजस्थान हाईकोर्ट ने आदेश दिया— उदयपुर SP और IO 15 दिसंबर को व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश हों
IG को VC के माध्यम से जुड़ना होगा। विक्रम भट्ट और उनकी पत्नी की गिरफतारी के बाद आज कोर्ट का ओपीनियन आया है।
किसी भी मामले में इतना बड़ा आदेश तब आता है, जब अदालत को लगता है कि पुलिस की कार्रवाई कुछ ज्यादा ही जोश में हो गई। यहाँ भी सवाल यही है—क्या पुलिस का यह ऑपरेशन सामान्य था, या किसी दबाव/किसी की प्रेरणा से ओत प्रोत होकर न्याय जल्दी दिलाने जिद के तहत की गई ​गतिशील कार्रवाई थी???

तेजी इतनी कि शहर अचंभित—24 घंटे में ‘ऑपरेशन मुंबई’

तथ्य चौंकाते हैं—
शिकायत 17 नवंबर को दी गई
7 दिसंबर को उदयपुर पुलिस 6 सदस्यीय टीम के साथ मुंबई पहुंच गई
उसी दिन विक्रम भट्ट और उनकी पत्नी को गिरफ्तार कर लिया गया
अगले दिन देर रात तक उदयपुर लेकर आ गई
और तुरंत 7 दिन की रिमांड भी मांग ली

जनता पूछ रही है—
“क्या पुलिस के पास ऐसे दर्जनों मामले नहीं हैं जहाँ महीनों तक FIR भी नहीं होती?” जनता का कटाक्ष — “अगर पुलिस इसी स्पीड से काम करे तो उदयपुर देश का सबसे सुरक्षित शहर बन जाए!”

शहर की यादें ताज़ा हैं—
कई चोरियों में चोर के स्पष्ट वीडियो होते हुए भी पुलिस महीनों हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है।
आर्थिक अपराधों में पीड़ित थाने के चक्कर काटते रहते हैं, लेकिन कार्रवाई ढुलमुल रहती है।
किसी आर्थिक लूट के मामले में लोकेशन तक बता देने पर भी दबिश देने में पुलिस अब तक सोच ही रही है।
किसी अन्य मामले में पुलिस की चाल कछुए को मात दे रही है।
परिवाद दर्ज् होने के तीन—तीन महीनों बाद परिवादी के बयान हो रहे हैं।
साफ सुबूत बड़े बड़ों के खिलाफ हैं, मगर एफआईआर नहीं हो रही है।
ज्वैलर की दुकान पर लूट, कार्रवाई नहीं मगर एक मकान में लूट का प्रयास, 200 सीसीटीवी देख कर दो दिन में नौकरानी और साथी पकड़े गए।
ऐसे कई मुद्दे हैं जिनकी फेहरिस्त जनता की अदालत में घूम रही है।

ऐसे में पुलिस की यह “अत्यंत फुर्तीली” कार्रवाई जनता को चौंका रही हैं सवाल खड़ा करती है—
क्या कानून सबके लिए बराबर है?
या फिर पुलिस की गति भी VIP और NON-VIP में बंट जाती है? वास्तविक मुद्दा—क्या यह मामला मूलतः एक सिविल विवाद है? विक्रम भट्ट का पक्ष कहता रहा है कि— यह फिल्म के निर्माण और भुगतान से जुड़ा सिविल विवाद है, जिसे सामान्यत: कोर्ट या सिविल प्रक्रिया से ही सुलझाया जाता है। ऐसे मामलों में आपराधिक FIR, तुरत-फुरत गिरफ्तारी और राज्य से बाहर दबिश देना बहुत दुर्लभ है।
इसलिए जनता के मन में यह प्रश्न उमड़ रहा है—
क्या पुलिस ने कानून की सामान्य प्रक्रिया को दरकिनार कर किसी के कहने पर इसे ‘ऑपरेशन मोड’ में बदल तो नहीं दिया?
अगर यह स्पीड सचमुच पुलिस की ‘नॉर्मल स्पीड’ है तो शहर की जनता तालियाँ बजाने व पुलिस को कंधों पर उठाने को तैयार है।

लेकिन फिर सवाल उठते हैं—

पिछले 5 सालों में कितने आर्थिक अपराधों में 24–48 घंटे में गिरफ्तारी हुई? कितने मामलों में 6 सदस्यीय टीम दूसरे राज्य गई? किन-किन मामलों में SP-IG स्तर की सीधी मॉनिटरिंग की गई?
अगर यह प्रक्रिया सभी के लिए है, तो यह शानदार है। पर अगर यह सिर्फ चुनिंदा मामलों में होती है, तो यह ‘समान न्याय’ के सिद्धांत पर गंभीर प्रश्नचिह्न है।

पुलिस की विश्वसनीयता, जनता के विश्वास पर सीधा असर
पुलिस की सबसे बड़ी पूंजी उसका ‘विश्वास’ है। पर जब जनता यह महसूस करती है कि—
उसके अपने मामलों में फाइलें रेंगती हैं, FIR दर्ज कराने में महीनों लग जाते हैं। परिवाद पर ही कुंंडली मार कर बैठ जाते हैं। अफसरों तक पहुँच न होने पर कार्रवाई ढीली रहती है व चलताउ हो जाती है लोग न्याय की आस ही छोड़ देते हैं। पर किसी खास केस में पुलिस “उड़न छू” वाली स्पीड पकड़ लेती है

तो यही विश्वास दरकना शुरू होता है।
आज उदयपुर में पुलिस के रवैये पर उठ रही शंकाएँ सामान्य नहीं हैं। ये उस खाई की ओर इशारा करती हैं,
जिसे जन-संबंध, भरोसा और पारदर्शिता से ही पाटा जा सकता है। जनता कह रही है कि हमें पुलिस से बराबरी चाहिए। अगर आईवीएफ वाले करोड़पति को चुटकी बजाते हुए न्याय मिल रहा है व आईजी स्तर पर सुनवाई हो रही है तो हर मामले में यही होना चाहिए। यदि नहीं होता है तो जनता तो सब पर गंभीर सवाल उठाएगी, कठघरे में भी खड़ा करेगी। क्योंकि कानून की नजरों में सब बराबर है और पुलिस को ये पवर्स ही इसलिए दिए गए हैं कि ताकि वह हर आमजन क विशवास के लिए इसका उपयोग कर सके।
जनता सिर्फ यह चाहती है कि— कानून सब पर समान रूप से लागू हो, हर पीड़ित को समान तत्परता मिले
VIP या प्रभावशाली लोगों पर पुलिस की ‘असामान्य गति’ न दिखे। यदि दिखे तो फिर सबके लिए हो।
और साधारण नागरिक के लिए पुलिस की स्पीड ‘कछुए’ जैसी न हो। जब तक पुलिस इस असमानता पर स्पष्ट जवाब नहीं देती, तब तक यह सवाल गूंजता रहेगा— अफसर समझ लें कि जनता ना तो मूर्ख है ना ही गूंगी।
नेता भी समझ ले कि उनका यह खेल सबको नजर आ रहा है लोग अंधे नहीं हैं।

विक्रम भट्ट मामला सिर्फ एक केस नहीं,
यह एक अवसर है— कि पुलिस अपने कार्यशैली पर आत्मचिंतन करे। अदालत की कड़ी टिप्पणी ने यह साफ कर दिया है कि इस कार्रवाई पर गंभीर प्रश्न उठ चुके हैं। अब यह पुलिस पर है कि वह— पारदर्शिता दिखाए, अपनी प्राथमिकताओं पर स्पष्टीकरण दे और यह भरोसा पैदा करे कि “उदयपुर पुलिस किसी एक की नहीं—सभी की पुलिस है।” आज पूरा शहर एक ही बात कह रहा है— “तेजी अच्छी है, लेकिन सबके लिए हो।”

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