24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी में विवादों की लपटें अब छात्रों की जेब तक पहुंच चुकी हैं। कुलगुरु प्रो. सुनीता मिश्रा का “छुट्टी प्रकरण“ एक अकादमिक अनुशासन का मामला कम और सत्ता बचाने की कवायद ज़्यादा बन गया है। 23 सितंबर से अवकाश पर चल रहीं प्रो. मिश्रा की छुट्टी को अब 21 नवंबर तक बढ़ा दिया गया है। यानी कुल 60 दिन का “फुल सैलरी वाला विश्रामकाल”।
कुलाधिपति के निर्देश पर कोटा यूनिवर्सिटी के कुलगुरु प्रो. बी.पी. सारस्वत को पहले ही सुखाड़िया यूनिवर्सिटी का अतिरिक्त कार्यभार सौंपा जा चुका है। ऐसे में सवाल यह है कि फर्क किसको पड़ रहा है। अवकाश प्राप्त वीसी को फुल सैलरी मिल रही है। कार्यभार संभालने वाला वीसी ऐसा तो है नहीं कि मुफ्त में सेवाएं देगा?? उसका टीए-डीए व आने जाने का खर्चा भाड़ा कौन देगा?? याने किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है, सब मजे में हैं। पूरा का पूरा भार स्टूडेंट की जेब पर है। जो मुद्दा बना था उससे तो ऐसा लग रहा था कि तत्काल कार्रवाई होने वाली है। बयानवीरों में विधायकों से लेकर बड़े बड़े मंत्री-संतरी तक ने बढ़ चढ़कर जोश दिखाया था मगर अब सब खामोश हो गए हैं। सवाल यह उठ रहा है कि कहीं खामोश उपर से कर तो नहीं दिए गए हैं। कोई आदेश तो नहीं आ गया कि जुबान बंद रखो, मामले को निपटाओ, ठंडा हो जाने दो, भूल जाने दो।
जब पूरा तंत्र ‘प्रभार’ और ‘छुट्टी’ के खेल में उलझा हुआ हो तो उससे उम्मीद करना ही मूर्खता है।
जांच कमेटी कौनसी दुनिया में है
औरंगजेब को “कुशल प्रशासक” बताने वाले बयान के बाद जो तूफ़ान उठा था, वह अब सन्नाटे में बदल चुका है। छात्रों और संगठनों ने विरोध दर्ज कराया, पर जांच कमेटी का अब तक कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। संभागीय आयुक्त प्रज्ञा केवलरमानी की अध्यक्षता में गठित समिति क्या कर रही है। इसका न तो कोई स्पष्ट अपडेट है, न जवाबदेही। कहीं जांच कमेटी भी उसी फिक्सिंग का शिकार तो नहीं हो गई। अगर कमेटी में एमबी अस्पताल अधीक्षक जैसे लोग हों जो अपने ही कॉलेज में छात्र की करंट से मौत पर न्याय नहीं दिला सके तो फिर कमेटी का भी भगवान ही मालिक है। वो क्या व कौनसी जांच कब तक कर लेगी यह भी चर्चा का विषय है। लोग कह रहे हैं कि कहीं इसीलिए तो आदेश में जांच की समय सीमा ही तय नहीं की गई। ताकि अंतहिन समय तक जांच करो और जब फैसले का आदेश हो जाए तो, जांच की औपचारिकता पूरी कर लो। यह आजमाया हुआ नुस्खा वैसे सुविवि में सबको पहले से पता है कि कमेटियां क्या करती हैं व उनकी रिपोर्टों का क्या हश्र होता है।
‘अवकाश’ का नया अर्थ- समय जाया करना जवाबदेही टालना
सूत्र बताते हैं कि छुट्टी बढ़ाने के पीछे असल मकसद इस्तीफा देने का दबाव बनाना तो नहीं लग रहा है। अगर कोई निर्णायक औपचारिक कार्यवाही करने थी हो इसमें देर क्यों लग रही है। “छुट्टी” अब एक प्रकार की ढाल बन गई है, जिसमें न प्रशासनिक कार्रवाई होती है और न ही किसी पर जवाबदेही तय होती है।
छात्रों का सवाल-आखिर खर्च कौन उठाएगा?
यूनिवर्सिटी के हर प्रशासनिक दिन का खर्च छात्रों की फीस से चलता है। ऐसे में दो-दो कुलगुरुओं के प्रभार, जांच समितियों और बैठकों का बोझ अंततः उन्हीं पर पड़ रहा है। छात्र संगठनों का कहना है कि यह पूरे सिस्टम द्वारा विरोध करने वालों को “समय और भ्रम” में उलझाने की रणनीति है।
गजब नौटंकी, फिर बढ़ाया अवकाश!! छात्रों के पैसों का धुआं!! सब मिलकर खेल तो नहीं रहे कुलगुरू की कुर्सी बचाने का खेल!!

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