24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। अब किसी जिले को स्कूल की बिल्डिंग चाहिए,, मरम्मत आदि करनी है, छतें जर्जर होने वाली है तो काम शुरू करने से पहले ही एक “स्कूल रिश्वत फंड” तैयार किया जाना चाहिए। बाकायदा जिले स्तर पर एक स्थायी कोष हो जहां जनता से ही चंदा बेशर्मी से वसूला जाए और निर्माण से पहले ही 10-10 प्रतिशत के भूखे, नंगे व दीमक बन चुके अफसरों, नेताओं और विभागीय ठेकेदारों तक उनका हिस्सा तत्काल पहुँचा दिया जाए। फिर जब यह अनिवार्य कर्तव्य पूरा हो जाए तो उसके बाद बचे हुए सरकारी पैसे से स्कूल की बिल्डिंग बनाई जाए। कम से कम इतनी मजबूत बने कि किसी मासूम की छज्जा गिरने से जान तो नहीं जाए।
दूसरे राज्यों में शिक्षा की बात होती होगी, लेकिन राजस्थान में फिलहाल “छज्जा या छत गिरने और बच्चा दबकर मरने” का ही सिलबस चल रहा है। कभी झालावाड़-सिरोही, उदयपुर में छत गिरती है, कभी बारां में प्लास्टर बच्चों के ऊपर फट पड़ता है, कभी बूंदी में क्लासरूम की दीवार टूटकर गिर जाती है। लेकिन न कोई मशाल जुलूस निकलता है, न किसी शहर में आंदोलन होता है। माँ-बाप भी अब आह भरकर चुप हो जाते हैं३ जैसे मौत भी इस खूनी पन्नों से रंगे “कोर्स” का हिस्सा हो गई है।
ताजा उदाहरण उदयपुर के कोटड़ा क्षेत्र का है, जहां पाथरपाड़ी स्थित सरकारी सी.सै. स्कूल के निर्माणाधीन भवन का छज्जा अचानक धराशायी हो गया। 11 साल की मासूम छात्रा ने मौके पर दम तोड़ दिया और दूसरी बच्ची अस्पताल में दर्द से कराह रही है। प्रशासन सक्रिय हुआ, कुछ घंटों तक फोन घनघनाये और फिर वही पुरानी स्क्रिप्ट शुरू हो गई :
‘ठेकेदार पर केस दर्ज’, ‘एईएन सस्पेंड’, ‘जेईएन को हटाया गया’ और उसके बाद गहरी सरकारी नींद। असली सवाल तो किसी ने पूछा ही नहीं – क्या वाकई दोष सिर्फ इन तीन लोगों के सिर पर है? या फिर पूरा सिस्टम एक-एक ईंट पर “ले-दे” की परंपरा के साथ खड़ा है? जिस जिस ने पैसे खाए उनके घरों में व उनकी पीढ़ियों में इस खून की हर बूंद के कुप्रभावों वाली बददुआओं का असर तो ना जाने कब होगा मगर
स्थानीय लोग अब खुलेआम कह रहे हैं कि सरकारी स्कूलों ही नहीं हर निर्माण में खुलकर रिश्वत का खेल होता है। ठेकेदार रिश्वत देने के बाद खुल्लम खुल्ला खेल शुरू कर देता है। घटिया से घटिया निर्माण क्योंकि उसे पता है कि उसके आका उसे किसी की मौत होने पर भी बचाने आ जाएंगे।
रिश्वत का यह तंत्र कभी खत्म नहीं होना है। ऐसे में “अगर सरकार पहले ही बताकर हमसे 10-10 परसेंट का फंड जनता से ही ले ले, तो लोग भी अपनी गाढ़ी कर्मा से पैसा खुशी दे देंगे, क्योंकि इससे कम से कम इमारत मजबूत बन पाएगी और बच्चा जिंदा वापस घर तो लौटेगा। वरना हालत ये है कि पहली ईंट भी तभी रखी जाती है जब रिश्वत की गणना और गणित पूरा हो जाता है। बंटवारा महफूज हाथों से हो जाता है। गजब की अध्ोंरगर्दी है कोई इंजीनियरिंग स्तर पर मॉनिटरिंग नहीं। कोई चेक एंड बैलेंस नहीं। सिस्टम दीमक से खोखला हो चुका है। सबको पता है कि बच्चा मरेगा तो दो दिन की हाय तौबा व रिपोर्टिंग होगी और तीसरे दिन सब भूल जायेंगे। सांसदों और विधायक तो आजकल मौनी बाबा और कठपुतलियों से अधिक हैसियत नहीं रख रहे हैं। उनकी प्रतिबद्धता पार्टी के प्रति ऐसी है कि चाहे जो हो जाए, उन्हें उससे एक दम आगे नहीं रखना है।
ऐसे में जनता भी सचमुच इन बातो ंकी अभ्यस्त हो चुकी है। यह सिलसिला तभी टूट सकता है जब किसी नेता, अफसर या किसी बड़ी हस्ती के सिर पर प्लास्टर गिर जाए और उसका भी वही हश्र हो जाए जो बच्चों का हुआ है।
अब लगता है कि “विद्यालय विकास समितियों” से पहले “स्कूल रिश्वत फंड समिति” बनाने की सख्त ज़रूरत है। ताकि जो भी स्कूल बने वो कम से कम भ्रष्टाचार का पूरा सम्मान करते हुए बने। ताकि किसी बच्ची की लाश पर यह सवाल न उठे कि ‘कमीशन अभी ऊपर तक पहुंचा नहीं था इसलिए ये छज्जा गिर गया।’ क्योंकि इस देश में अब ईमान कमज़ोर हो चुका है लेकिन कमीशन की परंपरा३ अभूतपूर्व रूप से सशक्त है।
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