टिप्पणी : सुशील जैन
अपने भाई साहब इन लोकसभा चुनावों में थर्ड अंपायर की भूमिका निभा रहे हैं। ऐसा अंपायर जो फैसले तो देता है लेकिन हमेशा रहता पर्दे के पीछे है। जब भी डिसिजन पेंडिंग का चक्का घूमता है, दर्शक और खिलाड़ी टकटकी लगाते उनके फैसले का इंतजार करते हैं। और जब वोटों के फैसलों की घड़ी आती है तब भाई साहब के लिए दूरियां मायने नहीं रखतीं, वे हर उस जगह हाजिर होते हैं जहां पर उनकी पॉलिटिकल प्रजेंस जरूरी समझी जा रही है। या फिर आला कमान की ओर से वहां मौजूद रहने के स्पष्ट निर्देश हैं। कभी किसी शैक्षणिक कार्यक्रम के बहाने तो कभी तीज-त्योहार के बहाने। दीपावली पर भाई साहब ने विधानसभा चुनाव की जाजम सजाई तो होली पर आकर लोकसभा की चौसर पर मोहरे फिट कर गए। मतदान से लेकर बूथ मैनेजमेंट और जनता को परोसे जाने वाले वादों तक की चाश्नी का तार देख गए। मगर दूर देस जाते ही पता चला कि कुछ कसर और तडक़ा अभी बाकी रह गया है। प्रवासी वोटरों को लुभाने वाला पूरा सेग्मेंट बाकी है। ऐसे में प्रवासी बने भाई साहब पहुंच गए प्रवासियों की टोह लेने गुजरात के सुरत में। डेरा खूब जमा है। वोटों का सौदा भी सच्चा हो रहा है। फुल पॉलिटिकल बल्लेबाजी का खेल चालू है। अपणायत के बहाने एक-एक वोट की गणित बिठाई जा रही है। बातों ही बातों में मंच से एकता रखने, सामाजिक व आर्थिक एका करने का आह्वान हो रहा है। एकजुट होकर उनका साथ देने की बात कही जा रही है जो देश को आगे ले जा रहे हैं। याने, दिखने में सब नॉन पॉलिटिकल , मगर है सब पॉलिटिकल। भाई साहब वोटों को पकाने की इस पाक-कला के सिद्धहस्त मास्टर शेफ हैं। बरसों से वे दूर देस के अपनों के बीच लगातार प्रवास करते हुए पार्टी के राजनीतिक मंत्र को प्रवासियों की पीढिय़ों में फूंकते चले आ रहे हैं। पार्टी के पास भी उनके अलावा ऐसा कोई चेहरा है ही नहीं जो उनकी जगह इस भूमिका को निभा सके। दूसरे शब्दों में बात रखें तो यहां भी उन्होंने सेकण्ड लाइन तैयार ही नहीं होने दी है।
जहां तक प्रवासी वोटरों का सवाल है तो वे बहुतायत में अहमदाबाद, मुंबई सहित गुजरात के अलग-अलग शहरों में बिखरे हुए हैं। सुरत राजस्थान के प्रवासियों का पावर हाउस है। यहां के प्रवासी पार्टियों को मौका-जरूरत के हिसाब से आर्थिक संबल समय-समय पर प्रदान करते हैं। बदले में इन्हें ईज ऑफ डूइंग बिजनेस अर्थात व्यापार की स्वायत्ता और अपने कुछ मामलों में लोकल सपोर्ट की डिमांड रहती है। जितना छोटा चुनाव, प्रवासियों की उतनी ही ज्यादा आवाभगत और मान मनुहार होता है। गांव-पंचायत का मामला है और एक-एक वोट से हार-जीत का फैसला होना है तब सुगम आवाजाही के लिए सुरत और मुंबई से गुमनाम दानदाताओं की ओर से कई-कई बसें चल जाया करती हैं। इस बार लोकसभा चुनाव में भी यही सब होने की तैयारी है। बस, कुछ बदला है तो भाई साहब की भूमिका बदली है। भाई साहब के लिए नॉन पोलिटिकल एनवायरमेंट क्रिएट करने, वैसे कार्यक्रमों की शृंखलाओं को इलेक्शन की टाइमिंग के आस-पास फिट करने आदि में थोड़ी सी उर्जा जरूर खर्च हो रही है लेकिन एक पंथ दो काज में चोखा रंग आ रहा है तो फिर कहना ही क्या? जहां दूसरे दलों में बड़े नेता लवाजमा लेकर और ढाल बजा कर प्रवासियों को लोकतंत्र का उत्सव याद दिला रहे हैं तो यहां यह काम भाई साहब अकेले ही अपने दम पर निपटा रहे हैं। शायद यही भाई साहब की यूएसपी है क्योंकि आवक-जावक के घमासान के बीच अब यह तो तय है कि जब तक उपयोगिता रहेगी, तब तक पार्टी में पूछ बनी रहेगी। देखना है भाई साहब के प्रयास इस बार कौनसे उम्मीदों के कमल खिलाते हैं?

