24 न्यूज अपडेट. उदयपुर। कल राजप्रसादों के बाहर जो कुछ हुआ उससे एक बात तो खुलकर सामने आ गई कि जिला प्रशासन केवल और केवल नेताओं के कहने पर ही एक्ट और रिएक्ट करता है। बरसों की मेहनत से हासिल किए गए उसके ज्ञान और टफ ट्रेनिंग के दौरान हासिल किए सबक केवल भाषणों तक ही सीमित हैं। कल उदयपुर की जनता को महसूस हुआ कि हम जिसे सिर माथे पर बिठाए रखते हैं वो जिला प्रशासन कितना बौना और लाचार है। राजनीतिक लॉबी के आगे किस प्रकार के नतमस्तक होकर हकीकत से आंख मूंद लेता है। उपरी आदेशों की पालना करते करते वह किस प्रकार से पूरे के पूरे सिस्टम का ही बेड़ा गर्क कर देते हैं। कल राजप्रसाद वाले मामले में कलेक्टर-एसपी के हाथ बांध दिए गए। प्रशासन को तैयारी सुबह से करनी थी, नोटिस दो दिन पहले से ही दे देना था, लेकिन दिया कब…….रात 1 बजे बाद। वो भी पत्थरबाजी में लोगों के घायल होने पर जबर्दस्त गुस्से के बीच अनिष्ट की आशंका से डर जाने के बाद। प्रशासन का इकबाल इतना भी बुलंद नहीं रह गया लगता है कि समय रहते कानून के मुताबिक सही फैसला तक कर सके। लोग कह रहे हैं कि कल पूरे दिन प्रशासन केवल ड्रामा करता रहा, उसके पास मामले को सुलझाने की इच्छाशक्ति थी ही नहीं। असली चाल तो पर्दे के पीछे से कुछ नेता चल रहे थे और यहां पर आदेशों की अनुपालना हो रही थी।
रात को कुर्की के एक नोटिस के बाद हालात बदले, महापड़ाव जैसी नौबत आते आते रह गई। नए महाराणा धुणी के दर्शन नहीं कर पाए, वापस लौट गए। अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या प्रशासन को यह नहीं पता था कि धुणी दर्शन या एकलिंगजी दर्शन के समय हालात बेकाबू हो सकते हैं। कॉमन सेंस वाला हर शहरवासी कल सुबह से कह रहा था कि हालात बिगड़ सकते हैं। लेकिन प्रशासन पैदल परेड का दिखावा करता रहा। प्रशासन जरा बताए कि उसकी क्या तैयारी थी। जब एक्शन का समय था, तब समझाइश तक करते नहीं दिखाई दे रहे थे। प्रशासन याद रखे कि जनता गूंगी है लेकिन अंधी नहीं है। वह निष्पक्ष रूप से सब देख रही थी। खुली आंखों से दिख रहा था कि प्रशासन पूरे दिन किसी अदृश्य दूर देश या प्रदेश के या फिर दिल्ली से पॉलिटिकल प्रेशर में पसीना पसीना हुआ जा रहा था। प्रशासन सोच रहा था कि मामला अपने आप मैनेज हो जाएगा?? रात गई बात गई वाली बात हो जाएगी। लेकिन पॉलिटिकल प्लान के मुताबिक ऐसा नहीं हुआ। तब प्लान बी याने कि नोटिस-नोटिस खेलने की जरूरत पड़ गई।
सवाल बडा व गंभीर है। कई बार तो इस पर अधिकारी सस्पेंड तक हो जाते हैं। सवाल ये है कि क्या जिला प्रशासन के पास इटेलिजेंस इनपुट नहीं था कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। क्या उसने प्रिज्युम कर लिया था कि एक बार दोनों पक्षों को भिड़ जाने दो, बाद में जो होगा देखेंगे? क्या उसकी कानूनी समझ इतनी कच्ची और नकल करके पास हुए लोगों जैसी भी नहीं थी कि पता ही नहीं था कि उसके पास नोटिस देने का भी पावर है। प्रशासन जिले का मालिक है, वो जो चाहे कर सकता है। यह सब समझ से परे है।
आज पूरे शहर में इस बात की चर्चा है कि प्रशासनिक फैल्योर से ही बात इतनी आगे बढ गई। मान लेते हैं कि हर दौर में प्रशासन पर पॉलिटिकल प्रेशर होता है। नेताओं की बातों को मैनेज करना पड़ता ही है। उनकी लकीर पर नहीं चलें तो नौकरी खतरे में पड़ जाती है। लेकिन मैनेज करना और पूरी तरह से खुद सरेंडर कर देना। इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर होता है। प्रशासनिक इकबाल बुलंद नहीं रहेगा तो शहर की कानून व्यवस्था गर्त में ंचली जाएगी। लोगों का भरोसा टूट जाएगा और वे कानून को अपने हाथ में लेने लगेंगे। सही वक्त पर सही फैसला, सर्व सम्मत फैसला। और यदि संभव नहीं हो तो कानून के अनुसार सख्त फैसला लेना प्रशासन की प्राथमिक जिम्मेदारी है। वह इससे भाग नहीं सकता। काई एक्सक्यूज नहीं चल सकता।
अब बात करते हैं जनता के परेशान होने की। कल अचानक स्मार्ट सिटी की वाल सिटी के अंदरूनी रास्ते बंद कर दिए गए। बेरिकेड लगा कर लोगों की आवाजाही बंद कर दी गई। कई टूरिस्ट भी फंस गए तो अचरज करने लगे कि ये हो क्या रहा है। जनता को लगा कि वो प्रशासन की किसी भी प्राथमिकता में है ही नहीं। जब चाहे उसे भेड बकरियों की तरह से हांक दिया जाता हैं। कोई पूर्व सूचना तक नहीं। वीआईपी आते हैं तो पूरा शहर जाम कर दिया जाता है। जब चाहे रास्ते रोक लिए जाते हैं बिना किसी पूर्व सूचना के। प्रशासन को लगता है लोगों की भावनाओं की कोई चिंता नहीं है। लोगों का समय और तकीलीफों से ज्यादा नेताओं की तकलीफों की चिंता उसे सताती रहती है। चिंता रहती है कि नेताजी नाराज हो गए तो कहीं पद और आर्थिक लाभ का जो गठजोड़ बना हुआ है उससे कहीं हाथ ना धोना पड़ जाए। नेता मैनेज हो गया तो मजे ही मजे, पब्लिक का क्या है, उसका तो बरसों से शोषण होता ही आ रहा है, आगे भी होता ही रहेगा। इसके अलावा टूरिज्म के सबसे व्यस्त महीने में ऐसा बवाल व पत्थरबाजी होना शहर के आर्थिक हितों पर कुठाराघात है। शहर की इमेज को जो धक्का लगा उसकी भरपाई कई महीनों तक नहीं हो पाएगी। इंटरनेट पर तैर रही पत्थरों वाली तस्वीरें और वीडियो कई विदेशी पर्यटकों को डरा कर उनका रास्ता रोक देगी।
नेताओं की कठपुतली बनना छोड़ें प्रशासन
जिला प्रशासन को नेताओं की कठपुतली बनने से बाज आना चाहिए। कल अगर जिला प्रशासन पर दबाव नहीं होता तो धुणी दर्शन के मामले को निपटाने में एक मिनट से ज्यादा का समय नहीं लगता। सोचिये कि अगर किसी आम आदमी का यह मामला होता व दो भाइयों में इस प्रकार की नौबत आती तो जिला प्रशासन एक मिनट में दोनों पक्षों को समझा देता। कानून व्यवस्था हाथ में लेना तो दूर, अगर पत्थरबाजी हो जाती तो अब तक बड़े व कभी ना भूलने वाले सबक सिखा दिए गए होते। जेल जाने की नौबत आ जाती। धर्म और जाति के अनुसार बुलडोजर जस्टिस की बात होने लग जाती। लेकिन जैसे ही मामला हाई प्रोफाइल हुआ, प्रशासन लो प्रोफाइल हो गया। उसकी टोन — जी भाई साहब, आप ही बताइये क्या करें। मिलकर रास्ता निकाल लीजिए। बार-बार कहने पर भी नहीं मान रहे हैं. हो गई। इससे यह संदेश चला गया कि अगर आप वीआईपी हैं तो प्रशासन अलग तरीके से ट्रीटमेंंट करता है। और अगर वीआईपी नहीं है तो जनता क्लास हार्डकोर ट्रीटमेंट किया जाता है। यह तो सच है कि कानूनी से बढ़कर कोई नहीं है। लेकिन लेकसिटी में कुछ लोगों का कद उससे उपर चला गया है। ये लोग इतने बड़े इसलिए दिख रहे हैं क्योंकि इनके पैर प्रशासन के कंधों पर आकर टिक गए हैं। घमंड को शिरोधार्य करके ये बता रहे हैं कि यहां राज अब भी उनका चलता है। आम आदमी में यह संदेश चला गया है कि सब एक हैं तो सेफ हैं। संगठन हैं तो सेफ हैं। मालदार हैं तो सेफ हैं। जोड़ जुगाड़ से पार्टी-पॉलिटिक्स में दखल रखते हैं तो सेफ हैं। यह चिंता का विषय है व आने वाले समय की खराब स्थितियों का संकेत भी।
नेताओं का दिखा बौनापन
आम आदमी जब-जब संघर्ष का झंडा बुलंद करता है, समझाने के लिए शहर के नेता समर्थकों की फौज के साथ दौड़े चले आते हैं। लेकिन कल के प्रकरण से यह साफ हो गया है कि नेता कितने बौने हैं। मामला हाई प्रोफाइल होते ही शहर के किसी भी नेता की हिम्मत नहीं पड़ी कि मौके पर आ जाए। समझाइश करना तो दूर की बात है प्रशासन से पूछ भी लें कि ये आपने ये क्या नौटंकी मचा रखी है। जनता को जो आवाजाही में परेशानी हो रही है। व्यापार बंद रखने से जो बिजनेस लॉस हो रहा है, उसकी खैर खबर ले लें। नेता दुम दबाकर सोशल मीडिया पर चुपचार चाय की चुस्कियों के साथ घर बैठे आनंद लेते रहें। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि उनको उपर से आदेश हो कि आपको कुछ भी बोलना नहीं है। बोले तो पॉलिटिक कॅरियर खतरे में पड़ जाएगा। शहरवासियों ने सीखा कि ऐसे नेताओं से उम्मीद करना खुद की भावनाओं से खुद ही खिलवाड़ करना है।


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By desk 24newsupdate

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