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खाओ-खिलाओ संस्कृति पर आधारित वाटिकाओं की परमिशन में मास्टर प्लान का उल्लंघन

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24 न्यूज अपडेट. उदयपुर। शहर में कुछ वाटिकाओं को नगर निगम की ओर से सीज करने के बाद से यह चर्चा जोरों पर हैं कि क्या वाटिकाओं का बिना भू-उपयोग परिवर्तन किए नियमन-परमिशन का काम किया जा सकता है। मास्टर प्लान पर हाईकोर्ट के आदेश इस मामले में लक्ष्मण रेखा और अब तक पत्थर की लकीर है जिसको लांघना नगर निगम या किसी भी निकाय के बस और बूते की बात नहीं है। लेकिन असल में यह सब हो नहीं रहा है। नगर निगम या नगर निकाय एग्र्रीकल्चर लैंड पर ही वाटिकाओं की परमिशन की आवेदन स्वीकार करती नजर आ रही है। जमीन का व्यावसायिक भू उपयोग परिवर्तन हुआ भी है या नहीं यह जांचने की जहमत नहीं उठाई जा रही है। हाल ही में हुई कार्रवाइयों के बाद एक चर्चा और भी है कि अब शहर में यह ढर्रा बन गया है कि पहले वाटिकाएं बना लों, उसके बाद पॉलिटिकल जैक जुगाड़ व खाओ खिलाओ संस्कृति को बदस्तूर जारी रखते हुए बरसों तक उसका गैर कानूनी रूप से संचालन कर लाखों की कमाई कर लो। इस बीच वाटिकाओं का विस्तार कर लो, चालीस-पचास कमरे बनवा दो। ऑफ सीजन में होटल का रूप देकर एक्स्ट्रा कमाई का आनंद लो, फिर जब पानी सिर से गुजरने लगे व शिकायतों का अंबार लग जाए तो कुछ पॉलिटिकल आयोजन या किसी बड़े नेता का अभिनंदन मुफ्त में करवा लो। उनके किसी जैक जुगाड़ वाले को रियायतें देते हुए कुछ और महीनों का संचालन का जीवन दान प्राप्त कर लो। आस पास कितना पॉल्यूशन हो रहा है, शोर शराबे से कितने लोग प्रभावित हैं, पार्किंग से कितनों को रोज पीड़ा झेलनी पड़ रही है, इसकी टेंशन करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि पुलिस से लेकर प्रशासन तक सब कुछ बॉटम तक सैटल है। उस पर भी बात नहीं बनें तो नगर निकायों से नोटिस जारी करने का नाटक करवाओ। एक नोटिस के बाद दूसरे नोटिस में मनचाही पेशगी देकर इतना ज्यादा समय का अंतर रखवाओ कि एक दो साल या मांगलिक आयोजनों के कई-कई सीजन और बीत जाएं। उसके बाद भी अगर कार्रवाई का ज्यादा दबाव निकायों पर बन जाए तो सीज की कार्रवाई होते ही परमिशन की फाइल लगा दो ताकि पुराने किसी किए कराए का हिसाब ही ना देना पड़े। इस पूरी प्रक्रिया में पांच से सात साल तक का समय आसानी से निकल जाता है। इस खाओ खिलाओ स्टार्टप बिजनसे के फायदे ये हैं कि लाभार्थियों की बहुत बड़ी रेंज है जिस कारण से इस मॉडल को बचाने के लिए सब मिलकर नियमो ंकी गलियां निकालते नजर आते हैं।
क्या कहते हैं नियम
हाईकोर्ट के आदेशों के अनुसार बिना भू उपयोग परिवर्तन के वाटिकाओं को अनुमति दी ही नहीं जा सकती है। याने एग्रीकल्चर से कॉमर्शियल का भू उपयोग परिवर्तन। यह बात करते ही जमीन के जानकार ठहाका लगाते हैं कि वाटिकाओं जितनी बड़ी जमीन का भू उपयोग परिवर्तन अव्वल तो संभव ही नहीं है उस पर भी किसी के बूते का नहीं है क्योंकि यह इतना महंगा सौदा है कि अगर भू उपयोग परिवर्तन के बाद परमिशन कोई लेकर वाटिका चलाएगा तो होम करते हाथ जलाने वाली बात हो जाएगी। इसके बाद सवाल यह उठता है कि तो क्या लगभग 200 की संख्या में बताई जा रही वाटिकाओं में से लगभग सभी खाओ खिलाओ स्टार्टप बिजनेस मॉडल पर चल रही हैं तो इसका संभावित उत्तर भी हां ही होगा। यहां नगर निगम पर सवाल खड़े होते हैं। निगम राजस्व संवर्धन के लिए लाइसेंस देता है। वो लाइसेंस तब तक नहीं दे सकता जब तक जमीन कॉमर्शियल नहीं हो। जमीन तब तक कॉमर्शियल नहीं हो सकती जब तक वह मास्टर प्लान के अनुरूप तय की गई कॉमर्शियल जगह पर हो। ऐसे में परमिशन दी जा रही है या देने की तैयारी है तो वो किस आधार पर है यह भी चर्चा का विषय है। अमूमन वाटिकाएं एक शादी में एक दिन का कुल पांच से छह लाख तक किराया वसूलती है लेकिन अवैध होने से वह किसी भी प्रकार के कर या अन्य जिम्मेदारियों से मुक्त होती हैं। ऐसे में जिम्मेदारी केवल निगम की ही नहीं पुलिस व प्रशासन की भी होती है। तो क्या वे भी इस प्रबंधन में नाकाम नजर आ रहे हैं, यह बड़ा सवाल है।
अगर पॉलिटिकल एप्रोच व अन्य आर्थिक कारणों से नियमों से परे जाकर ढील देनी ही है तो फिर नियमों का ढकोसला तत्काल सभी मामलों में त्याग देना चाहिए। बिल्डिंग बायलॉज को भी ताक में रख देना चाहिए क्योंकि अगर कोई व्यक्ति अपने घर में एक कमरा या दुकान भी बिना परमिश के बनाता है तो वहां निगम का दस्ता सीज करने पहुंचा जाता है। यहां तो निगम की परिधि में ही उनके अफसरों व कर्मचारियों के कार्यकाल में ही, जन प्रतिनिधियों के होते हुए भी वाटिकाओं का बड़े़. आराम से वाली स्टाइल में संचालन हो रहा है। यही नहीं उन पर कार्रवाई भी पिक एंड चूज आधार पर या फिर सबक एक को सीख सभी वाली रणनीति के तहत की जा रही है।
झीलों की नगरी में वाटिकाओं की परमिशन व उनके कानूनी प्रावधानों की रोशनी में समुचित प्रबंधन का मुद्दा बड़ा है इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। खाओ खिलाओ संस्कृति के कारण जनता को ध्वनि प्रदूषण, गंदगी, अतिक्रमण, पार्किंग सहित अन्य समस्याएं रोज झेलना पड़े, यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। नगर निगम भी अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती।

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