24 News Update उदयपुर। “सिर्फ अपने सुख का नहीं, अपितु सभी जीवों के सुख का विचार करना ही दैविक वृत्ति है।” यह प्रेरक संदेश जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सूरीश्वर महाराज ने रविवार को हिरणमगरी सेक्टर-3 स्थित श्री शांतिनाथ जैन संघ महावीर भवन में आयोजित धर्मसभा में अपने प्रवचन के माध्यम से दिया। कार्यक्रम में समाजजनों की बड़ी उपस्थिति रही और आध्यात्मिक वातावरण से पूरा परिसर भावविभोर हो उठा।
जैनाचार्य ने भगवान महावीर के पूर्व जन्मों की चर्चा करते हुए कहा कि उनकी आत्मा तीर्थंकर बनी, इसका मूल कारण यह था कि उनके 27 जन्म पहले ‘नयसार’ रूप में ग्रामचिंतक के रूप में उन्हें किसी को दान देने का शुभ विचार आया था। उन्होंने कहा कि परोपकार की भावना से उपजा दान का विचार मनुष्य को ऊँचाई की ओर ले जाता है। केवल अपने सुख की सोच स्वार्थ की प्रवृत्ति है, जबकि समस्त प्राणियों के हित की सोच दैवीय चेतना का प्रतीक है।
प्रवचन में उन्होंने संग्रह और उदारता के अंतर को समझाते हुए कहा कि जो केवल संग्रह करता है वह मनुष्य के रूप में राक्षस होता है, और जो प्राप्त सामग्री का दान करता है, वह देवतुल्य होता है। उन्होंने उदाहरण दिया कि खाया गया अन्न अगले दिन विष्टा बन जाता है, लेकिन दान किया गया अन्न अमृत बन जाता है। बादल हमेशा ऊँचाई पर रहते हैं क्योंकि वे जहाँ जाते हैं वर्षा करते हैं, जबकि समुद्र केवल संग्रह करता है और हमेशा नीचे रहता है। इसी प्रकार, जो उदारता से देता है, उसका स्थान समाज में हमेशा ऊँचा होता है।
आचार्य ने शालिभद्र की कथा सुनाते हुए कहा कि उन्होंने पूर्व जन्म में गुरु भगवंत को खीर का दान दिया था और शुभ भाव के कारण वे अपार संपत्ति के स्वामी बने। अंततः उन्होंने अल्प भवों में ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग तय कर लिया।
जैन संघ के कोषाध्यक्ष राजेश जावरिया ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए बताया कि आयोजन में जैन श्रावक समिति के अध्यक्ष आनंदीलाल बम्बोरिया, भूपाल सिंह दलाल, जीवन सिंह कंठालिया तथा समिति के अन्य कार्यकारिणी सदस्य भी उपस्थित रहे। धर्मसभा में श्रद्धालुओं ने बड़ी श्रद्धा के साथ भाग लिया और आचार्य श्री के अमृतमयी वचनों से लाभान्वित हुए।

