- गजब का गणित : जिस यूडीए ने कोर्ट में फ्लाई ओवर बनाने से किया इनकार वो देगा सबसे ज्यादा 61 करोड़, जिस राज्य सरकार ने की बजट घोषणा वो सबसे कम केवल 27 करोड़ और जिस निगम के पास पैसों की भारी की कमी है उसके कांधे पर 47 करोड़ देने का जिम्मा
- बड़ा सवाल-यदि यूडीए से सर्वाधिक पैसा लेना ही था तो उसको क्यों नहीं दिया इस काम का जिम्मा, जबकि उसे पास हैं पर्याप्त अनुभव, संसाधन और विशेषज्ञ, जिस निगम को अनुभव कम है वो किस लाभ से कर रहा है यह काम!!!
24 न्यूज़ अपडेट उदयपुर। उदयपुर के एलिवेटेड फ्लाई ओवर बनाने के नाम पर जो राजनीतिक दखल के बाद पॉलिटिकल इकोनोमिक्स चल रही है वो बहुत ही इंटरेस्टिंग और गजब हो गई है। एक उदाहरण से समझें कि – किसी की व्यक्ति की इनकम केवल इतनी ही है कि घर का बिजली का बिल, राशन, किराया, बच्चों की फीस ही भर पा रहा है। अगर वो बेसिक जरूरतों पर खर्च की बजाय अचानक कार पर खर्चा कर दे तो उसे क्या कहियेगा। आम जनता की भाषा में मूर्खता और सभ्य भाषा में ‘‘ऐसा नहीं करते तो शायद ज्यादा उचित रहता’’ कहा जाएगा। नगर निगम ठीक ऐसा ही कर रहा है।
निगम के जरिये जिन नेताओं ने उदयपुर को फ्लाई ओवर देने का ख्वाब पूरा किया उनकी जिम्मेदारी थी कि आर्थिक प्रबंध ऐसा करें कि जनता की जेब पर डाका नहीं डाला जाए। हींग लगे ने फिटकरी, रंग चोखा आ जाए। लेकिन उन्होंने जी भाई साहब के चक्कर में ऐसा नहीं किया। पूरे 136 करोड के प्रोजेक्ट में से 47 करोड़ खर्च करने का जिम्मा खुद निगम ने ओढ़ लिया। जबकि खुद के खजाने में इतना पैसा ही नहीं है। इस धन को जुटाने के लिए अब उदयपुर की जनता का वहीं हाल होगा जो कार खरीदने वाले उदाहरण वाले भाई साहब के परिवार का होगा। हम बिजली,पानी, सड़कों के लिए बार-बार निगम में जूतियां घिसेंगे, वो फ्लाई ओवर के लिए पैसा देकर साफ कह देंगे कि धन बचा ही नहीं है। और ज्यादा दबाव आया तो टेक्स बढ़ा दिए जाएंगे। जबकि होना यह चाहिए था कि एलिवेटेड रोड के लिए सबसे ज्यादा धनराशि सरकार से ली जाती। इस प्रोजेक्ट में धन के बंटवारे के आज जो आंकडे आए हैं वो चौंकाने वाले हैं। राज्य सरकार जिसने बजट घोषणा की है वो इस प्रोजेक्ट में केवल 20 परसेंट धन दे रही है। बाकी का 80 परसेंट पैसा दोनों स्थानीय निकाय निगम और यूडीए के माथे पर डाल दिए गए।
उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि जिस एलिवेटेड रोड को बनाने के लिए यूडीए से पैसा लिया जा रहा है वो तो हाईकोर्ट में पहले ही एनओसी का एफिडेविट देकर कह चुका है कि हम फ्लाई ओवर नहीं बना रहे हैं । उसने तो नगर निगम को एनओसी थमा दी थी व कहा था कि भाई, हमसे ना होगा। हम तो यह जिम्मा आपको दे रहे हैं। वे यूडीए पूरे प्रोजेक्ट में 45 प्रतिशत पैसा याने कि 61 करोड़ रूपया दे रहा है। अब सवाल उठ रहा है कि यदि यूडीए से पैसा लेना ही था व उसको प्रोजेक्ट में सबसे बडा धनदाता बनाना ही था तो फिर इसे बनाने का पूरा का पूरा जिम्मा उसको क्यो ंनहीं दिया। किसका दबाव था, किसको लाभ देना था, किसकी खुशामद करनी थी?? यह बड़े सवाल हैं क्योंकि जनता तो पूछे कि भाई साहब, नगर निगम को जब अपने बेसिक काम बिजली, सड़क और पानी सफाई आदि के इंतजाम करने में ही पसीना छूट रहा है वो इतने बड़े फ्लाई ओवर को बनाने का जिम्मा क्यों ले रहा है जबकि दूसरी सरकारी एजेंसी यूडीए इसमें सर्वाधिक पैसा लगा रही है?
एक और सवाल उठ रहा है कि क्या डीएमएफटी और सीएसआर फंड से पैसा नहीं लिया जा सकता था ताकि नगर निगम याने कि उदयपुर की जनता पर कम बोझ पड़ता। यह कैसा वित्तीय प्रबंधन है। जो सबसे ज्यादा पैसे दे रहा है वो काम नहीं करवा रहा। जो काम करवा रहा है वो पेट काट कर पैसा दे रहा है। जो बजट घोषणा कर वाहवाही लूट रहा है वो केवल 20 प्रतिशत पैसा दे रहा है। स्थानीय नेताओं या कहें कि निगम के कर्णधारों को पता है कि उदयपुर में सीएसआर फंड से रोजाना 54 लाख रूपया खर्च हो रहा है। 100 दिन का सीएसआर का पैसा ही ले लिया जाता तो उदयपुर की जनता का एक पैसा लगाए बिना एलिवेटेड फ्लाई ओवर बन जाता। आपको बता दें कि इस काम का जिम्मा ट्रांसरेल लाइटिंग प्राइवेट लिमिटेड को दिया गया है जिसने 136.89 करोड़ में इसे बनाने का जिम्मा लिया है।
बड़े सवाल जो उठे
- अचानक ऐसा क्या हो गया कि राज्य सरकार ने केवल 20 प्रतिशत राशि देकर अपने हाथ खींच लिए? उसका शेयर सबसे ज्यादा रखना ही था, हमारे नेताओं ने सशक्त पैरवी क्यों नहीं की??
- जो यूडीए हाईकोर्ट में प्रोजेक्ट से हाथ खींच रही थी वो अब सर्वाधिक 61 करोड़ देने को तैयार कैसे हो गई?
- अगर यूडीए सबसे ज्यादा 61 करोड़ दे रही है तो फिर निगम के पास एलिवेटेड फ्लाई ओवर बनाने का जिम्मा क्यो हैं? जबकि यूडीए के पास ज्यादा संसाधन, ज्यादा अनुभव और ज्यादा पैसा है? यह किसके दिमाग की उपज है कि जो कम सक्षम है उसको एलिवेटेड फ्लाई ओवर बनाने का जिम्मा दे दो ताकि मनचाहा खेल खेला जा सके???
-यूआईटी या यूडीए के पास लगातार करोड़ों का धन विभिन्न कामों से आता है। संसाधन इनते भरपूर हैं कि अगर नगर निगम की मदद नहीं भी ली जाती तो भी फ्लाई ओवर का निगम का हिस्सा वो ही दे देता। अभी आधा पैसा तो वैसे भी दे ही रहा है। यूडीए के लिए यह धन किसी एक छोटी-मोटी स्कीम के डवलपमेंट में मिले धन जितना भी नहीं है। - ऐसा क्या राज है कि जो एलिवेटेड रोड बनाने में सक्षम नहीं है, उस नगर निगम के जिम्मे काम दिया जा रहा है, कहीं किसी मोटे आर्थिक लाभ का खेल तो नहीं?? अगर सर्वश्रेष्ठ काम करवाना है तो फिर निगम से 100 गुना सक्षम यूडीए से काम करवाना था।
- अपने पॉलिटिकल लाभ के लिए शिलन्यास की जल्दी करने की क्या जरूरत थी। अब तक काम शुरू नहीं होने से जग हंसाई हो रही है। पैसा ही अब सेंक्शन हुआ है तो काम कब शुरू होगा??
हाईकोर्ट का कभी नहीं लगा स्टे
एक और खास बात ये है कि एलिवेटेड रोड के मामले में हाईकोर्ट ने कभी भी स्टे नहीं लगाया। जबकि नेता बार-बार कहते फिर रहे हैं कि हाईकोर्ट का स्टे हटवाया है। इस काम के लिए सबसे पहले दिलचस्पी यूआईटी ने दिखाई थी। जब टेण्डर हुए तो मामला हाईकोर्ट चला गया। एनएचएआई से विशेषज्ञ रिपोर्ट मांगी गई तो उसने बहुत ज्यादा पैसा जमीन एक्वायर करने व सर्वे में लगने की बात कहते हुए अपने हाथ खींच लिए, टेण्डर वापस ले लिया गया। मामला वहीं कोर्ट ने यह कहते हुए खत्म किया कि अगली बार बनाओ तो हमारी परमिशन लेना जरूरी होगा। उसके बाद यूडीए बरसों बाद कोर्ट गया व शक्तिनगर से अश्विनी बाजार तक के फ्लाई ओवर की परमिशन मांगी तो कोर्ट ने दे दी। लेकिन यूडीए ने उसे बनाया ही नहीं। इसके बाद जब भजनलाल सरकार ने बजट घोषणा में इसे शामिल किया तो हाईकोर्ट में नगर निगम गई। उसने कहा कि यूडीए नहीं बना रही है उसने हमको एनरओसी दे दी है। कोर्ट ने इसे बनाने की परमिशन दे दी।ऐसे में पूरे मामले में कहीं भी कभी कोर्ट का स्टे नहीं लगा।
निगम व यूडीए की तुलना नहीं की जा सकती
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि निगम और यूडीए दोनों सरकारी भुजाएं ही हैं। एक भुजा दूसरी को फ्लाई ओवर बनाने के जिम्मे का हस्तांतरण कर सकती है। जबकि निगम व यूडीए की क्षमता के आधार पर तुलना नहीं की जा सकती। निगम के पास इतने संसाधन ही नहीं है जितने कि यूडीए के पास हैं। लेकिन हाईकोर्ट ने तकनीकी दक्षता वाले बिंदु को फिर भी विचारणीय रखा व इसका जिम्मा स्थानीय निकाया को दिया कि वो दक्षता का ध्यान रखें।

