उदयपुर। एलिवेटेड फ्लाई ओवर के टेण्डर डाक्यूमेंट में जो ब्लंडर मिस्टेक कॉपी पेस्ट करते हुए की गई है उनके सामने आने के बाद अब तक तो इंजीनियर साहब को चार्जशीट व एक्सप्लेनेशन कॉल की कार्रवाई हो जानी चाहिए थी लेकिन प्रशासनिक मिलभीगत और राजनीतिक छत्रछायां के चलते हर तरफ से इसे ढंकने,छिपाने, जनता की नजरों से ओझल करने और प्रपोगेंडा फैला कर भुलाने की भरसक कोशिशें शुरू हो गईं हैं। जब से 24 न्यूज अपडेट ने सिलसिलेवार अपनी खबरों में कॉपी पेस्ट विधि से बनाए गए टेण्डर डाक्यूमेंट की पोल पटï्टी खोली है, निगम के सूरमाओं से जवाब देते नहीं बन पड़ रहा है। इसके बरक्स साइबर और प्रिंट मीडिया में यह बहस उछाल दी गई है कि कौन पक्ष में हैं, कौन विपक्ष में। कौन विकास का हिमायती और कौन शहर के विकास का विरोधी है। लेकिन मूल मुद्दा टेण्डर डॉक्यूमेंट की भीषण गलतियां हैं जिनकी वजह से शहर की जनता के पैसों का 137 करोड़ का काम ही सवालों के घेरे में आ गया है। हमारे एक्सपर्ट इंजीनियर पैनल ने पूरे डाक्यूमेंट का बारीकी से अध्ययन करने के बाद ताजा खुलासा यह किया है कि कट कॉपी पेस्ट की डीपीआर पर निगम को खुद ही भरोसा नही है। उसने ठेका देते समय ही लिख कर दे दिया है कि ठेकेदार खुद तय करेगा कि एलिवेटेड रोड की डिजाइन कैसी होगी। अगर इतनी बड़ी बात भी हमारे निगम के कॉपी पेस्ट चैंपियंस ने नहीं पढ़ी तो मामला बहुत ज्यादा गंभीर है। सांसद, विधायक और अन्य जिम्मेदारों को संज्ञान लेकर तुरंत इस पर सवाल-जवाब करने चाहिए। यदि नहीं करते हैं तो उनको भी आने वाले समय में अगली पीढी को जवाब देना पड़ सकता है।
अब समझते हैं कि ब्लंडर हुआ क्या है
टेण्डर डाक्यूमेंट के अनुसार पृष्ठ संख्या 8 पर लिखा गया है कि डीपीआर ‘केवल संदर्भ के लिये सर्वेÓ. इसी प्रकार टैंडर डॉक्यूमेंट के पृष्ठ संख्या 118 (आंतरिक पृष्ठ – 32) में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि अनुसंधान व डिजाइन ठेकेदार को करनी है। यानि लाखों रूपये दे कर जो डीपीआर अर्थात डीटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करवाई है उसके सर्वे और उसकी डिज़ाइन पर निगम को भरोसा नहीं है। निगम अंतिम निर्णय ठेकेदार पर छोड़ रही है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि ठेकेदार को केवल कॉपी पेस्ट कर भुगतान उठाने का मौका जान बूझकर दिया जा रहा है। सब पहले से पता हो और जान कर अनजान बना जा रहा है। पहले से यह तय हो कि हम मिस्टेक छोड़ेंगे, तुम उनका लाभ उठाते हुए बाद में भरपाई की मांग करना, हम सहृदयता दिखाते हुए भरपाई कर देंगे। इस मामले में ब्लंडर यह हुआ है कि निगम ने पहले ही अपने अधिकारों को सीमित करते हुए एक तरह से पूरे प्रोजेक्ट को ही ठेकेदार के हवाले छोड़ दिया है कि वह चाहे जो डिजाइन बनाए। निगम की बनाई डिजाइन केवल एक प्रपोजल है। आप इसे एक बड़ा मजाक समझ लीजिए। मान लीजिए कि आप घर बनाते हैं व उसके लिए खुद पैसा व समय खर्च करते हुए मन माफिक नक्शा बनवाते हैं। नक्शा बन जाने के बाद जब आप काम का ठेका देते हैं तो ठेकेदार से यह कहते हैं कि यह नक्शा तो हमने बनाकर आपको दे दिया है लेकिन यह केवल आपके संदर्भ के लिए है। आप इस पर अनुसंधान कीजिए और डिजाइन कीजिए। याने कम हमें अपनी मर्जी का करवाना है या फिर ठेकेदार की मर्जी का।
कसंल्टेंट के हाथ बांध दिए
एक तरीके से निगम ने अपने ही कंसल्टेंट के हाथ बांध दिए हैं। कंसल्टेंट को प्रोजेक्ट की निगरानी का काम दिया जाएगा। वह यदि आफ्टर पॉलिटिकल रिटायरमेंट वाले कोई श्रीमान हुए तो बंटाढार तय है। लेकिन अगर वास्तव में कोई शहरवासियों, भाई साहब की मंशा के अनुरूप गुणवत्ता का पूरा खयाल रखने वाला हुआ तो टकराव की नौबत आ जाएगी। कंसल्टेंट गुणवत्ता की बात करेगा, ठेकेदार कहेगा कि मुझे तो पहले ही लिख कर दिया गया है कि डिजाइन मेरे मन मुताबिक होगी। ऐसे में मेरेा निर्णय ही अंतिम होगा। सवाल यह उठ रहा है कि इनती छोटी सी बातें भी हमारे कॉपी पेस्ट के सूरमा निगम के इंजीनियर नहीं पकड़ सके तो फिर वे इतने बड़े प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी कैेसे संभालेंगे। लाखों खर्च कर बनाई गई डीपीआर क्या केवल हाथी दाँत की तरह दिखाने के लिए है। इसमें वर्णित सर्वे और अन्य डिजाइन केवल ठेकेदार को कार्य का संदर्भ यानी कि क्या कार्य होना है उसका विवरण देने के लिए है, अब डीपीआर के अनुसार एलिवेटेड रोड के समस्त सर्वे, डिजाइन व इसके लिये जो भी तकनीकी कार्य करने हैं वो ठेकेदार के ऊपर निर्भर होंगे कि वो किससे करवाए और कैसे करवाए। एलिवेटेड रोड की डिजाइन ठेकेदार को तय करनी है। लाखों खर्च कर बनवाई गई कॉपी पेस्ट वाली डीपीआर तो वैसे ही पहले से खारिज थी, लेकिन डीपीआर में वर्णित शर्त के अनुसार ये काम ठेकेदार को ही करने हैं।
24 परसेंट कम पर ठेका लेना, टेण्डर डाक्यूमेंट में लूपहॉल किस ओर इशारा करते हैं?
इस ड्रीम प्रोजेक्ट एलिवेटेड फ्लाई ओवर के भूमि पूजन समारोह में ही कह दिया गया कि टेंडर कंपनी को नुकसान की भरपाई निगम करेगा। तब सवा सवाल उठ गया कि नुकसान की आशंका अभी से क्यों? क्य इसलिए कि कंपनी ने खुद सरकारी दर से 24 परसेंट कम पर ठेका लिया है? यदि कम पर ठेका लिया है तो वो उसने अपने सारे नफे नुकसान को देख कर लिया है। हम अभी से ठेकेदार को नुकसान की चिंता में क्यों दुबले हुए जा रहे हैं। राजनीतिक औपचारिकता पूर्ण होने के बाद अब यही सवाल बच गया है कि एलिवेटेड फ्लाई ओवर की ड्यूरेबिलिटी, एफिशिएंसी कैसी होगी। इस काम का टेण्डर लेने वाली कंपनी के काम की बारीकी से निगरानी कैसे व कितनी सटीक होगी। जनता का 137 करोड़ रूपया खर्च होकर क्या शानदार मॉडल बनेगा। चाहे जो दल और विचारधारा हो, सब यही चाहेंगे कि जिसने ठेका लिया है वो अपना काम पूरी ईमानदारी व समयबद्ध रूप से नियमों के अनुसार करे। लेकिन यह सवाल बार बार पूछा जाएगा कि टेण्डर के लूप होल्स किसके लाभ के लिए छोड़ दिए गए हैं? इसके परिणाम क्या हो सकते हैं? निगम के किन इंजीनियरों को कॉपी पेस्ट करने पर चार्जशीट तुरंत मिलनी चाहिए। टेण्डर डाक्यूमेंट का पैसा भी वापस वसूला जाना चाहिए। इस पर बात चर्चा नहीं होने देने के लिए ही तो कहीं पॉलिटिकल वितंडे तो नहीं खड़े किए जा रहे हैं। राजनीतिक रूठना मनाना तो चलता ही रहेगा मगर मूल सवाल ये है कि लापरवाही बरतने वालों पर कार्रवाई कब होगी??? होगी भी या नहीं????
आपको बता दें कि इस काम के लिए सरकारी निविदा 179 करोड़ की प्रस्तावित थी। लेकिन जिस फर्म को टेण्डर मिला उसने 137 करोड़ में इस काम को पूरा करने का वादा करते हुए ठेका लिया है। अर्थात सरकारी दरों से 24 प्रतिशत कम पर ठेका दिया गया है। यही नहीं, कई शर्तों के साथ ही ठेका कंपनी इस एलिवेटेड फ्लाई ओवर का 10 साल तक रख रखाव भी देखेगी। ठेका कंपनी ने अपना नफा और नुकसान देखने के बाद ही सरकारी दर से 24 परसेंट से कम रेट में टेण्डर भरा व टेण्डर उसके नाम पर खुल गया। जबकि सरकारी इंजीनियरों ने इस काम की लगत 179 करोड़ तय की थी।
भ्रष्टाचार पर क्या मिलेगी सजा
काम की गुणवत्ता पर ध्यान देने की बातें हो रही हैं। लेकिन इतने बड़े प्रोजेक्ट की रिपोर्ट और टेण्डर डाक्यूमेंट में यहां के इंजीनियरों ने जो कॉपी-पेस्ट का खेल खेलकर र्भ्रष्टाचार किया है उसका क्या होगा? टेण्डर डाक्यूमेंट में कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जो मुमकिन ही नहीं है। मसलन रेलवे से परमिशन लेने की शर्त समझ से परे है। इस काम से रेलवे का कोई लेना-देना नहीं है। ना तो काई पटरी बीच में आ रही है ना कोई पुल। दूसरा, एक महीने में पूरे के पूरे मार्ग से अतिक्रमण हटा कर उसको खाली करवा कर ठेका कंपनी को सौंपना। यह करना संभव ही नहीं है। उससे भी बड़ा सवाल ये है कि सब चाहते हैं कि काम गुणवत्तापूर्ण हो। लेकिन क्या ऐसा संभव है। इसे संभव से परे हमारे निगम के ही इंजीनियर बना रहे हैं। ठेका कंपनी इन लूप होल्स के सहारे बड़ी ही आसानी से किसी भी जिम्मेदारी से बच सकती है या फिर गुणवत्ता की बात होती ही कानूनी रूप से पल्ला झाड़ सकती है कि यह सब को टेण्डर की शर्तों में लिखा ही नहीं है। निगम जो इंजीनियर निगम के टेण्डर के 500 पेज का डाक्यूमेंट ठीक से नहीं जांच सकते वो इतने बड़े काम की गुणवत्ता को क्या व कैसे जांचेंगे। इसकी उम्मीद करना ही बेमानी है।
टेण्डर डाक्यूमेंट को देख कर ऐसा लग रहा है मानों पूरा का पूरा काम ही ”उदड़ेÓÓ पर दे दिया गया है। कॉपी पेस्ट वाले टेण्डर डाक्यूमेंट में कहीं पर भी जिक्र नहीं है कि पूरे निर्माण में सामान की विशिष्टियां क्या होंगी। सामान की विशिष्टियां मतलब कि हर चीज की बारीकी। उदाहरण के लिए लोहा टाटा स्टील का लगेगा या री रोड या लोकल गला हुआ लगेगा। सीमेंट कौनसे ग्रेड की लगेगी, गिट्टी रेत आदि की गुणवत्ता की कोई चर्चा नहीं की गई है। अगर विशिष्टियां नहीं लिखी जाएंगी और कल को ठेकेदार उदयपुर में ही भंगार से बने हुए सरिये लगा देगा व कम ग्रेड की सीमेंट काम में लेगा तो हमारे कापी पेस्ट वाले इंजीनियर साहब उन्हें कैसे रोकेंगे। क्योंकि टेंडर में ही कहीं नहीं लिखा है कि कौनसा लोहा-स्टील, सीमेंट लगेगा। ऐसे में कोई लायबिलिटी भी नहीं बनेगी। यह सब इसलिए हुआ है क्योंकि ना बड़े वाले इजीनियर साहब ने इसे पढ़ा है ना महापौर साहब ने इस डाक्यूमेंट को खोल कर देखा है जिनकी तारीफ की जा रही है।

