विशेष संपादकीय : सुशील जैन 24 न्यूज अपडेट
उदयपुर की राजनीति में आज सूर्यास्त के समय कांग्रेस में एक बार फिर राजनीतिक सितारे का उदय हुआ। पूर्व जिला कलेक्टर ताराचंद मीणा को कांग्रेस ने टिकट देकर लगभग भाजपा के हाथ में गई लोकसभा सीट पर मुकाबला कांटे का बना दिया। ताराचंद मीणा ने अपने पूरे कार्यकाल में पूरा फोकस उदयपुर के आदिवासी अंचलों पर रखा। झाड़ोल और कोटड़ा को एक तरह से उनकी राजनीति की प्राथमिक पाठशाला की प्रयोगशाला बन गई थी जिसमें उन्होंंने ‘मिशन कोटड़ा’ जैसे फलदायी वटवृक्ष लगाए और जमकर वाहवाही लूटी। मिशन कोटड़ा हालांकि आइडिया किसी जीनियस अफसर का था मगर उन्होंने इसे लपकते हुए श्रेय अपने नाम पर लूट लिया। यही नहीं जब गहलोत सरकार में जिले बांटे जा रहे थे तब झाड़ोल को जिले का दर्जा दिलाने की भी जबर्दस्त पैरवी की। विधानसभा चुनाव आते-आते उनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के किस्से प्रशासनिक गलियारों से रिस-रिस कर जनता की चौपाल तक आने लग गए, पूर्व सांसद रघुवीर मीणा से मुलाकातों और फिल्डिंग जमाने कि किस्से भी सुर्खियां बंटोरने लगे। तब कहा जाने लगा कि शायद उन्हें झाड़ोल से टिकट मिल सकता है। मगर वहां की पुरानी खांटी राजनीति के चक्रव्यूह को वे पार नहीं पास के और अगले मूव का इंतजार करते हुए चुप बैठने में ही भलाई समझी। मिलनसारिता, सहृदयता, जनता से जुड़ाव और समस्याओं की समझ, सबको साथ लेकर चलने के जिन गुणों का मुजाहिरा उन्होंने पद पर रहते हुए किया वे जन मानस पर अभी तक ताजा हैं। इस यूएसपी को वे कितना भुना पाते हैं ये तो आने वाला वक्त ही बता पाएगा। उनके मुकाबले भाजपा से उदयपुर में डीटीओ रह चुके मन्नालाल रावत हैं जिन्होंने आज विधानसभा क्षेत्रों में अपना चुनाव प्रचार भी धाकड़ अंदाज में शुरू कर दिया और कल से चुनाव कार्यालय खुलने शुरू हो जाएंगे। रावत धुंआधार तरीके हर वर्ग से संपर्क साध कर मोदीजी की गारंटी, आरएसएस वाला हार्डकोर हिन्दुत्व और आदिवासियों की घर वापसी जैसे अपने आईडियोलॉजी बेस्ड विचारों को लेकर वोट मांग रहे हैं। यूं तो उदयपुर के खेल में रावत और मीणा दोनों का पॉलिटिकल डेब्यू होने जा रहा है। दोनों उस पिच पर खेलने जा रहे हैं जिस पर राजनीति के धुरंधरों ने अपनी पारी खेली है। दीगर बात ये एक तरह से दोनों दलों के प्रत्याशी आयातित हैं। भाजपा का खेमा स्थानीय राजनीति से ऐसा कोई चेहरा नहीं खोज पाया जो काबिल हो। उसकी तलाश विचार परिवार के वर्चुअल थिंकटेंक वाले ड्राइविंग ट्रेक पर जाकर पूरी हुई। जबकि कांग्रेस के पास मीणा के अलावा कोई विकल्प बचा ही नहीं था। इसका सीधा सा कारण चुनावी खर्च की ‘हाथ की तंगी’ में देखा जा सकता है।
खैर, दोनों प्रत्याशियों को प्रशासन की गहरी समझ है और दोनों आदिवासी बेकग्राउंड से हैं। ऐसे में अब उदयपुर सीट पर मुकाबला दिलचस्प हो गया है। अब बीएपी और बीटीपी की वोट उड़ाती-झुलसाती हवाओं के बीच आदिवासी वोटों का बंटवारा निश्चित है। ऐसे में एक-एक वोट पर दोनों प्रत्याशियों को नजर रखनी होगी, उसे पक्का करने के पैंतरे आजमाने होंगे। फ्लोटिंग वोटर और अन्य वर्गों का वोट ही निर्णायक साबित होंगे। भाजपा के चुनावी घोड़े और सिपहसालार उन्हीं के शब्दों में इस युद्ध में सरपट दौड़ रहे हैं तो कई स्तरों पर दृश्य व अदृश्य सेना की मोर्चाबंदी हो चुकी है। तो दूसरी ओर कांग्रेस के हाथ को अभी अपने भाग्य की लकीरें खुद लिखना भी बाकी है। यही नहीं पांचों उंगलियों को बंद कर हाथ की मुट्ठी तन जाए, उतनी राजनीतिक प्रभावशीलता और रौब-दाब तक पैदा करने की अभी जरूरत महसूस की जा रही है। स्थानीय दिग्गज तो पहले ही रिटायर्ड-हर्ट हो कर पैवेलियन लौट चुके हैं। कांग्रेस के ऐसे दौर में जब कई नेता पार्टी का साथ छोड़ कर कमल का दामन थाम रहे हैं या फिर विभिन्न मामलों में जांच की आंच को मंदा करने भाजपा की वाशिंग मशीन में धुल कर ठंडी आहें भर रहे हैं, ऐसे में ताराचंद मीणा का कांग्रेस का टिकट पाना मेवाड़ की राजनीति की एक बड़ी परिघटना कही जा सकती है। ताराचंद मीणा के सामने जो चुनौतियां हैं उनसे वे तब से वाकिफ होंगे जब से उन्होंने राजनीति में उतरने का मंसूबा पाला होगा। उनके लिए तो टिकट मिलते धुआंधार तरीके से जुट जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। नींदों में घुलते सपनों वाली बूथ स्तर तक की सेना में जोश भरना है। ….दूसरी तरफ भाजपा जानती है कि ताराचंद मीणा को हल्के में नहीं लिया जा सकता, वे डार्क होर्स साबित हो सकते हैं शायद इसीलिए डबल इंजन की सरकार आते ही ताराचंद मीणा को उनके कार्यस्थल पर ‘आदेश की प्रतीक्षा में’ वाले साइलेंट मोड पर डाल दिया गया और फाइलें खंगालने का मिशन शुरू हो गया। पॉलिटिकल कैम स्कैनर से उनके कार्यकाल के वृत्तचित्र का हर पिक्सल देखा जा रहा है। बहरहाल, मोहनलाल सुखाडिय़ा और उसके बाद गुलाबचंद कटारिया जैसे दिग्गजों वाली भाजपा और कांग्रेस की जाजम बिछा कर बरसों से सेवा करने वाली लीडरशिप व कार्यकर्ताओं के लिए भी यह चिंतंन का मौका है कि आखिर उनकी तपस्या में कहां कमी रहे गई है कि आला-कमान दोनों दलों में लोकल लीडरशिप नहीं खोज पाए और टिकट ब्यूरोक्रेसी के हाथ चला गया।

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