नन्हीं चिड़िया गौरैया: संकट में हमारी परंपरागत साथी

चीं-चीं कर आती और घर-आंगन में फुदकती… नन्हीं सी चिड़िया…जो कभी घरों की शान थी। कच्चे घरों की खपरैल के बीच, दीवार की दरारों, तस्वीरों के पीछे, गर्डर के कोनों, टीन-टप्परों व छज्जों के नीचे तथा छत पर पानी के नालों में तिनकों से बनाये हुए इनके घोंसले देखे जाते थे। इनकी चहचहाहट से वीरान घर भी आबाद और जीवंत होते रहते थे। इसी नन्हीं चिड़िया को दाना-पानी देकर देखभाल करते घर के छोटे बच्चों से लेकर बूढ़े हाथ कभी भी थकते नहीं थे। प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति, स्वतंत्रता, उल्लास और परंपरा की संवाहक वही गौरैया अब संकट में है। आज विकास की दौड़ में गांव-शहरों में उग आए सीमेंट के जंगलों और पेड़ों के स्थान पर उगे बिजली व मोबाइल के टावरों ने इस गौरैया को घरों से गायब सा कर दिया है।

किसानों की मित्र है नन्हीं गोरैया

सामान्य बोलचाल में जिसे चिड़िया कहा जाता है, वह हमारी गौरैया ही है। गौरैया एक छोटे आकार की चिड़िया है। इसके पंख काले या घूसर रंग के होते हैं। गौरैया की लंबाई 14-18 सेमी के बीच होती है। इसका सिर गोल, पूंछ छोटी व चोंच नुकीली पिरामिड आकार होती है। गौरैया विवर नीडन है यानि कि ये अपना घोंसला पेड़ों, चट्टानों, घरों या इमारतों के विवर में बनाना पसंद करती है। इसके प्रजनन का समय अप्रैल से अगस्त तक है, हालांकि कई जगह पूरे साल इसके घोंसले देखे गए हैं। यह एक बार में 4-5 अंडे देती है। अंडे का रंग सफेद, हल्का नीला, सफेद या हल्का रंग-सफेद होता है। ऊष्मायन अवधि 11-14 दिन है। इसके चूजे 14-16 दिनों में उड़ने लगते हैं।

गौरैया किसानों की मित्र मानी जाती है। गौरैया कीटभक्षी है और यह हजारों वर्षों से खेतों और हमारे घर-आंगन में कीट-पतंगों, मक्खी, मच्छर, मकड़ियां, इल्लियां आदि को खाकर पर्यावरण को संतुलित करती है और हमारे जीवन को सहज बनाने में मदद करती है। वह अपने चूजों को भी वे इल्लियां खिलाती है जो फसल को नुकसान पहुंचाती हैं। इस मायने में गौरैया स्वस्थ पर्यावरण की जैव-सूचक है।

इसलिए गायब हो रही है गोरैया

विशेषज्ञों के अनुसार अत्यधिक शहरीकरण व पक्के आवास के कारण गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए जगह नहीं मिल पा रही है। अब इनके लिए न तो खपरैल है और ना ही टीन-टप्पर। पक्के मकान भी बन चुके हैं और इनके दरवाजे गौरैया के लिए बंद हो चुके हैं। खिड़कियों और रोशनदानों पर जाली लगाए जाने के कारण इनकी पहुंच घरों के भीतर नहीं हो पा रही है और ये घोंसले नहीं बना पा रही हैं। दूसरी तरफ इनकी आश्रय स्थली पेड़ों व झाड़ियों की बेतहाशा कटाई के कारण प्रजनन के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिल पा रहा है और अब इनका अस्तित्व खतरे में दिखाई दे रहा है। इसके अलावा फसलों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से इनके मुख्य भोजन कीट-पतंगों की कमी के कारण भी ये गायब हो रही हैं। विभिन्न शोधों में यह भी बताया जाता है कि मोबाइल टावरों के रेडिएशन के कारण भी इसकी प्रजनन क्षमता में कमी आ रही है और इससे लगातार इनकी संख्या कम हो रही है। यह सुखद है कि अब पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील लोगों के कारण नन्हीं गौरैया के लिए घरों में लकड़ी और गत्ते के कृत्रिम घोंसले लगाने का प्रचलन बढ़ा है और इन घोंसलों में अब ये अपनी वंशवृद्धि भी कर रही हैं।

अखिल विश्व में है गोरैया का गौरव

प्राकृतिक रूप से गौरैया भारत के साथ यूरोप, अफ्रीका, एशिया, म्यांमार व इंडोनेशिया में आसानी से देखी जा सकती है। गौरैया का गौरव समूचे विश्व में है, इसी कारण अब तक भारत सहित 20 से अधिक देशों में गौरैया पर डाक टिकट जारी किए गए हैं। गौरैया पर युगोस्लाविया में 1982 में पहली बार डाक टिकट जारी की गई। भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई 2010 को गौरैया पर पाँच रुपये मूल्य वर्ग का डाक टिकट जारी किया। इस डाक टिकट में एक नर व मादा गौरैया को दर्शाया गया है।

चिड़िया एक नाम अनेक

अलग-अलग बोलियों, भाषाओं, क्षेत्रों में गौरैया को विभिन्न नामों से जाना जाता है।

  • उर्दू: चिरया
  • सिंधी: झिरकी
  • पंजाब: चिरी
  • जम्मू और कश्मीर: चेर
  • पश्चिम बंगाल: चराई पाखी
  • उड़ीसा: घराछतिया
  • गुजरात: चकली
  • महाराष्ट्र: चिमनी
  • तेलुगु: पिछुका
  • कन्नड़: गुबाच्ची
  • तमिलनाडु और केरल: कुरूवी

निष्कर्ष

गौरैया केवल एक चिड़िया नहीं, बल्कि हमारी परंपरा, संस्कृति और पर्यावरणीय संतुलन की संवाहक है। जिस तरह से यह पक्षी धीरे-धीरे हमारे आस-पास से लुप्त होती जा रही है, हमें इसे बचाने के लिए सजग होना होगा। घरों में कृत्रिम घोंसले बनाना, कम से कम कीटनाशकों का उपयोग करना और इनके लिए दाना-पानी की व्यवस्था करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है। अगर हमने अभी भी इस पर ध्यान नहीं दिया, तो वह दिन दूर नहीं जब गौरैया केवल तस्वीरों और किताबों में ही देखने को मिलेगी।


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By desk 24newsupdate

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