24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। उदयपुर के आरटीओ विभाग पर गंभीर आरोप लगे हैं कि वह सूचना अधिकार अधिनियम याने कि आरटीआई को न केवल गंभीरता से नहीं ले रहा, बल्कि उसे छिपाव और भ्रष्टाचार के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। विभाग में जब भी कोई आरटीआई आवेदन किया जाता है, तो नियत 30 दिन की अवधि में सूचना नहीं दी जाती। इसके विपरीत, समय सीमा पार होने के बाद विभाग जान बूझकर बैकडेट में जवाब अपलोड करता है और अवैध रूप से ऑफलाइन शुल्क मांगता है, जबकि नियमानुसार आवेदन ऑनलाइन है तो शुल्क भी ऑनलाइन ही जमा होगा।
देश के जाने माने आरटीआई एक्टिविस्ट, पत्रकार व सामाजिक काय्रकर्ता जयवंत भैरविया ने व्यापक जनहित को देखते हुए 6 फरवरी 2025 को एक आरटीआई आवेदन किया जिसका जवाब 30 दिन की समय सीमा के बाद दिया , सूचना की जगह सिर्फ एक पेज अपलोड कर दिया गया जिसमें मांगे गए मूल रजिस्टर्ड दस्तावेजों की जगह महज पिछोला में चल रही बोट के रजिस्ट्रेशन नंबर थमा दिए गए। आरटीओ में किस कदर अंधेरगर्दी छाई हुई है इसका प्रमाण तब मिला जब भैरविया ने जुलाई 2025 में वही सूचना दोबारा मांगी, तो विभाग ने जवाब देते हुए 1042 रुपये का शुल्क मांग लिया। जबकि अधिनियम के अनुसार समय पर सूचना न दिए जाने पर वह सूचना निशुल्क प्रदान की जानी थी। याने दो आरटीआई एक तरह के सवाल मगर जवाब अलग-अलग। गजब का दफ्तर है। जब जी में आया वे जवाब दे दिया। क्योंकि उसे पता है कि उपर तक मैनेज कर लेने से कुछ नहीं बिगड़ने वाला है।
यह महज एक उदाहरण नहीं, बल्कि सूचना देने से बचने की विभाग की सोची समझी रणनीति का हिस्सा प्रतीत होता है। पूर्व में भी लाल-नीली बत्तियों के संबंध में मांगी गई जानकारी, दिसंबर 2024 में पिछोला के बोट संचालकों व होटल मालिकों के साथ हुई बैठक में शामिल लोगों के नाम-पते, और पिछोला झील में संचालित बोटों के वैध दस्तावेजों की सूचनाएं मांगी गईं, परंतु कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया गया। यह स्पष्ट रूप से इस ओर इशारा करता है कि विभाग सूचनाओं पर पहरेदारी कर रहा है व किसी की शह पर किसी को बचा रहा है।
आरटीआईः सूचना का अधिकार नहीं, विभाग के लिए संकट बनता अधिकार!
सूचना न देने की इस लापरवाही में पहला प्रयास होता है – बहानेबाजी। जब यह काम नहीं करता तो भ्रमित करने वाला जवाब दिया जाता है। यदि फिर भी बचाव नहीं हो पाए, तो शुल्क की मांग कर सूचना देने से पल्ला झाड़ा जाता है। प्रथम अपीलों में भी आवेदकों को न्याय नहीं मिलता। इससे पहले यह सूचना मांगी गई कि आरटीओ में कितनी आरटीआई की अपील की सुनवाई की गई, निर्णय की प्रति दें। मगर नहीं दी गई। इससे स्पष्ट होता है कि प्रथम अपीलीय अधिकारी भी सूचना के अधिकार को गंभीरता से नहीं लेते।
भ्रष्टाचार और मिलीभगत के गंभीर संकेत
सबसे गंभीर मामला पिछोला झील में संचालित बोटों से जुड़ा है। आरोप हैं कि इन बोट्स में से कुछ में लंच, डिनर और शराब पार्टियों तक का आयोजन किया जाता है। बिना नगर निगम, आबकारी या आरटीओ की अनुमति के। यदि आरटीओ बोट संचालकों के रजिस्ट्रेशन दस्तावेज साझा करें, तो कई अनियमितताओं का खुलासा हो सकता है। क्या बोट का पंजीकरण केवल लाने-ले जाने के लिए हुआ है या निजी पार्टियों के लिए? यही कारण है कि आरटीओ इन दस्तावेजों को छिपा रहा है।
यह स्थिति न केवल प्रशासनिक भ्रष्टाचार को उजागर करती है, बल्कि जन स्वास्थ्य को भी खतरे में डालती है। आमजन जिस झील का पानी पीते हैं, वहां यदि ऐसी गतिविधियों से गंदगी बढ़ती है, तो एक दिन पीएचईडी भी उस पानी को शुद्ध करने में विफल हो जाएगा।
जबावदेही तय हो -सूचना के अधिकार का उपहास नहीं
लोक सूचना अधिकारी नानजीराम गुलसर और पूर्व अधिकारी अनिल कुमार सोनी व नेमीचंद पारिख की भूमिका इस पूरे मामले में संदेह के घेरे में है। सूचना के अधिकार को छिपाव का हथियार बनाना, जवाब टालना, शुल्क का दुरुपयोग करना, और जवाबों में गुमराह करना, ये सभी इस ओर संकेत करते हैं कि विभाग जानबूझकर अनियमितताओं को प्रश्रय दे रहा है।
इस पूरे प्रकरण की उच्च स्तरीय जांच की आवश्यकता है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि आरटीओ विभाग कैसे सूचना देने के संवैधानिक दायित्व से बचते हुए भ्रष्टाचार की फसल सींच रहा है। यदि यही रवैया जारी रहा तो सूचना का अधिकार एक खाली कानून बनकर रह जाएगा और जनहित के मुद्दे दफन होते रहेंगे।
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