24 News Update उदयपुर. उदयपुर कांग्रेस संगठन में इन दिनों घमासान मचा हुआ है। रघुवीरसिंह मीणा का देहात कांग्रेस जिलाध्यक्ष बनना केवल एक संगठनात्मक नियुक्ति नहीं, बल्कि आने वाले तीन वर्षों की राजनीतिक दिशा तय करने वाला कदम माना जा रहा है। दिलचस्प यह कि रघुवीरसिंह मीणा वो चेहरा हैं जो चाहते तो प्रदेश अध्यक्ष तक की दौड़ में शामिल हो सकते थे। मगर उन्होंने देहात की रणभूमि आखिर क्यों चुनीं। सूत्रों के मुताबिक, यह नाम दिल्ली स्तर तक स्वीकार्य था और सचिन पायलट की सहमति से ही आगे बढ़ा।
उदयपुर देहात जिले में छह विधानसभा सीटें आती हैं। यह संभाग का सबसे बड़ा और राजनीतिक रूप से संवेदनशील जिला है। कांग्रेस पार्टी के भीतर यह जिला हमेशा “हेडक्वार्टर” की तरह देखा जाता रहा है। रघुवीर का नाम शुरुआत में पैनल में नहीं था, बाद में जोड़ा गया। यह अपने आप में संकेत है कि यह फैसला साधारण नहीं था।
सलूंबर बनाम उदयपुर ग्रामीण में फंसी रणनीति
रघुवीरसिंह मीणा बीते उपचुनाव में कांग्रेस की हार के बाद से सलूंबर में लगातार सक्रिय हो गए थे। मौत-मरण, शादी-ब्याह—हर सामाजिक मौके पर मौजूद रहकर मीणा अपनी खोई जमीन वापस लेने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन जिलाध्यक्ष की कुर्सी ने उनके समीकरण धुआंधार अंदाज में बदल दिए। सलूंबर अब उनकी प्राथमिकता में पीछे जाता दिख रहा है, जबकि उदयपुर ग्रामीण की ओर उनकी मौजूदगी बढ़ती नजर आ रही है। इसे समय का फेर कहें या मजबूरी यह खुद मीणा तय नहीं कर पा रहे हैं, ऐसा दिखाई दे रहा है।
परमानंद का आना, रेशमा का सक्रिय होना, अब क्या करेंगे रघुवीर
इस बीच रेशमा मीणा के चुनाव संयोजक रहे परमानंद मेहता का जिलाध्यक्ष बनना भी अहम संकेत देता है। संगठन में उन्हें अब स्पष्ट निर्देश हैं कि विधायक प्रत्याशी को साथ लेकर चलना है हर पार्टी के आयोजन में। यहां मजबूरी यह है कि प्रत्याशी रेशमा मीणा थीं। रघुवीर की धर्मपत्नी बसंती मीणा—जो 2013 और 2018 की प्रत्याशी रह चुकी हैं, इस नए समीकरण से लगभग बाहर दिख रही हैं। यही कारण है कि बीज-खाद को लेकर ज्ञापन तक सलूंबर में रघुवीरसिंह मीणा ने मोर्चे पर उपस्थित रह कर दिया। जबकि बसंती मीणा की फील्ड प्रेजेंस लगातार कमजोर पड़ती दिख रही है। मीणा उस जमीन को हर हाल में अपने अनुकूल ही रखना चाहते हैं।
परमानंद मेहता की सोशल मीडिया पोस्ट्स में भी रेशमा मीणा की प्रमुखता साफ नजर आती है। संगठन के भीतर यह संदेश जा चुका है कि अब रेशमा की पकड़ मजबूत की जा रही है। ऐसे में इसको डीकोड करके उसका तोड़ निकालना रघुवीर के लिए मुश्किल होता जा रहा है। मगर यह उनको पता है कि हर हाल में उनको यहां कोई ना कोई गलियारा निकालना ही होगा।
धरना, प्रदर्शन और ‘दो मोर्चों’ की मजबूरी
उदयपुर में इन दिनों कांग्रेस के धरना-प्रदर्शन तेज हैं। ऐसे में रघुवीरसिंह मीणा को एक साथ शहर और ग्रामीण—दोनों जगह प्रेजेंस वो भी निर्णायक रखनी पड़ रही है। दिलचस्प तथ्य यह है कि 2018 में जब सचिन पायलट प्रदेश अध्यक्ष थे, तब रघुवीर को उदयपुर ग्रामीण से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव मिला था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। अब वही बीज दोबारा अंकुरित होते दिख रहे हैं। जानकार कह रहे हैं कि सलूंबर का किला कमजोर रहा और यहां अनुकूल स्थितियां रही तो कुछ दिन बाद ही रघुवीर की बिसात लोगों को उदयपुर ग्रामीण में धरातल पर नजर आने लग जाएंगी।
विवेक कटारा का अब्दुल्ला दीवाना वाल जश्न, दूरी का संकेत?
रघुवीरसिंह मीणा के जिलाध्यक्ष बनने के बाद एआईसीसी की दिल्ली महारैली को लेकर बसों की व्यवस्था पर बड़ी बैठक हुई। इसमें जिले के बड़े नेता शामिल थे, लेकिन विवेक कटारा की गैरमौजूदगी ने कई सवाल खड़े कर दिए। इसके बाद उदयपुर देहात की लगभग हर विधानसभा से बसें गईं, लेकिन उदयपुर ग्रामीण से एक भी नहीं। पीसीसी अध्यक्ष ने इस पर सार्वजनिक तौर पर सवाल उठाया। इससे साफ हो गया कि कटार कहीं ना कहीं कटारा परिवार को चुभ तो गई है। भविष्य के संकेत मिल गए हैं।
विवेक कटारा के सामने चुनौती यह भी है कि उनका परिवार लगातार तीन चुनाव हार चुका है और हर बार हार का अंतर बढ़ता गया है। प्रदेश नेतृत्व के साथ उनकी ट्यूनिंग भी फिलहाल सहज नहीं मानी जा रही। ऐसे में पार्टी के भीतर यह चर्चा तेज है कि उदयपुर ग्रामीण के लिए रघुवीरसिंह मीणा एक “उपयुक्त और सेफ फेस” बन सकते हैं—साफ छवि, सॉफ्ट इमेज और अब तक विवादों से लगभग मुक्त। विवेक कटारा ने आदिवासी कांग्रेस के राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर बनने के बाद शक्ति प्रदर्शन भी किया। इसे अब्दुल्ला दीवाना रणनीति कहा जा रहा है। एयरपोर्ट रिसीविंग से लेकर सेक्टर-11 कार्यालय में बड़ी बैठक तक का शो आफ जिसने भी देखा यही सवाल पूछा कि ये हो क्या रहा है भाई??? खेरवाड़ा के बंशीलाल मीणा को भी जिम्मेदारी मिली, लेकिन उसका प्रचार नहीं हो पाया। प्रचार है या अपना कद बचाने की कवायाद। उपलब्धि भले छोटी हो, लेकिन कटारा का प्रचार बड़ा दिखा। यह विवेक कटारा की सोशल मीडिया रणनीति का असर माना जा रहा है।
दिव्यानी कटारा और ताराचंद मीणा भी दिखा रहे उपस्थिति व दावेदारी
दिव्यानी कटारा ने सोशल मीडिया पोस्ट में खुद के नाम के साथ “उदयपुर ग्रामीण” लिखकर साफ संदेश दे दिया है कि वे मैदान में हैं। अतिक्रमण विरोधी कार्रवाई से लेकर हर धरना-प्रदर्शन में उनकी सक्रियता बढ़ी है। उनके राजनीतिक मार्गदर्शक या गॉड फादर माने जाने वाले ताराचंद मीणा ऊपर तक मजबूत लायजनिंग रखते हैं, वे उनकी बनाई पगडंडी पर तो नहीं चल रहीं लोग पूछ रहे है। हालांकि विवेक कटारा से तारांचद मीणा के रिश्ते सहज नहीं हैं यह जग जाहिर है।
तारांचद मीणा खुद छिपे हुए दावेदार
ताराचंद मीणा खुद पसोपेश में हैं—झाड़ोल जाएं या उदयपुर ग्रामीण? लोकसभा में वे झाड़ोल से केवल तीन हजार वोटों से हारे थे, इसलिए झुकाव वहीं का है। मिशन कोटडा आपको याद तो होगा। कैसे सरकारी पैसों से राजनीति चमकाई थी मीणा साहब ने कलेक्टर रहते हुए। लेकिन उदयपुर ग्रामीण की राजनीति भी उन्हें आकर्षित कर रही है। फिलहाल उनके इरादे दबे हुए हैं, लेकिन रेस बेहद दिलचस्प हो चुकी है।
कार्यकर्ता पसोपेश में किसके खेमे में जाएं, वेट एंड वॉच मोड में
इन तमाम समीकरणों के बीच कार्यकर्ता शांत है। नजर इस पर है कि रघुवीरसिंह मीणा की पीसीसी में कितनी चलती है, सचिन पायलट से उनका रिश्ता कितना मजबूत है और दिल्ली में उनका वजन क्या है। डोटासरा के 52 हजार बीएलए मॉडल की तारीफ राहुल गांधी कर चुके हैं—ऐसे में संगठनात्मक ताकत का पैमाना भी बदल रहा है। याने किस खेमे में जाएं कार्यकर्ता यह अभी वो यत नहीं कर पा रहा है। वेट एंड वाच ही उसको रास आ रहा है।
आगे की लड़ाई पंचायत से विधानसभा तक
पंचायत चुनाव रघुवीरसिंह मीणा के लिए अग्निपरीक्षा होंगे। छह विधानसभा क्षेत्रों की पंचायतें संभालनी हैं और सलूंबर में चार पंचायत समितियां व एक पालिका—जहां फिलहाल कांग्रेस काबिज है—उन्हें बचाना भी जरूरी है। यहां उन्हें फादर फिगर की भूमिका में उतरना होगा। साथ ही खुद की महत्वाकांक्षाओं के टापुओं पर भी कब्जा नहीं होने देना है। देखा जाए तो फिलहाल उदयपुर कांग्रेस में कोई एकछत्र नेतृत्व नहीं है। रघुवीरसिंह मीणा कितनी जल्दी सबको साथ ला पाते हैं, यह आने वाले महीनों में साफ होगा। वे लगातार फोन कर संवाद बना रहे हैं—संकेत है कि मुकाबला लंबा और दिलचस्प रहने वाला है।
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