24 News Update उदयपुर। राजस्थान में पुलिस थानों में करोड़ों रुपए खर्च कर लगाए गए सीसीटीवी कैमरों का असली उद्देश्य आम जनता की निगरानी और सुरक्षा सुनिश्चित करना है। लेकिन हाल के मामलों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि अगर आम नागरिकों को फुटेज ही नहीं मिल रहे तो इन कैमरों का क्या मतलब है। जबकि कैमरे आम आदमी के टेक्स के करोड़ों रूपयों से लगाए गए हैं। करोड़ों लगाकर इनकी मेंटनेंस की जा रही हैं। इनके लिए बकायदा प्रशिक्षण दिया जा रहा है। ऐसे में मनी ओर मेन पावर दोनों ही वेस्ट हो रहे है। हर घटना के बाद आरअीआई में सीसीटीवी थानों से मांगने पर नए बहाने बनाकर टरकाया जा रहा है। तो अब मांग यह उठने लगी है कि जब फुटेज ही नहीं मिल रहे हैं तो उनको लगाने का औचित्य ही क्या है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राजस्थान में पुलिस हिरासत में 11 मौतों के बाद थानों में सीसीटीवी कैमरों की स्थिति पर सख्त सुनवाई की। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि हर थाने में कितने कैमरे हैं और वे कहां लगे हैं, इसकी जानकारी दो हफ्ते के भीतर दी जाए। कोर्ट ने यह भी कहा कि निगरानी इंसानी हस्तक्षेप पर नहीं बल्कि एआई आधारित प्रणाली से होनी चाहिए।
जनता के हक की अनदेखी
वहीं, निचले स्तर पर थानों से सीसीटीवी फुटेज आम नागरिकों तक पहुंचाने में बड़ी अनियमितता है। आरटीआई के माध्यम से मांगने पर पुलिस लगातार बहाने बना रही है। देश के जाने माने आरटीआई एक्टिविस्ट और पत्रकार जयवंत भैरविया की आरटीआई से यह खुलासा हो गया है कि हर बार बहाने बनाए जा रहे है। तब भी जब कोर्ट सुनवाई कर रहा है। उदयपुर और अन्य जिलों में कई मामलों में ऐसा हुआ कि तकनीकी कारण, स्टोरेज न होना, रिकॉर्ड डिलीट हो जाना या जांच चल रही होने का हवाला देकर फुटेज देने से मना कर दिया गया। कई बार तो ऐसे बेतुके जवाब दिए गए जो गले ही नहीं उतरते। यदि सीसीटीवी देने से थानों की गोपनीयता भंग होती है तो उनके होने का औचित्य ही क्या है।
उदाहरण के लिए सुखेर थाना (उदयपुर) में नवंबर 2024 में तेजपाल मीणा की मौत। इसका आरटीआई में जवाब आया कि तकनीकी कारण से फुटेज खराब हो गए। गोगुंदा थाना में मई 2025 में सुरेंद्र देवड़ा की मौत। जवाब आया कि सीसीटीवी उपकरण पुराना होने के कारण स्टोरेज नहीं है। कांकरोली, अलवर, खेतड़ी, परसाद, श्रीगंगानगर, जयपुर, भरतपुर, कोटा सहित सभी में विभिन्न मामलों में बहाने बनाए गए व फुटेज नहीं दिया गया। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर फुटेज आम जनता को नहीं मिल रहे हैं, तो थानों में कैमरे लगाना सिर्फ दिखावा बन जाता है। सुप्रीम कोर्ट लगातार थानों में निगरानी पर सख्ती कर रहा है, लेकिन निचले स्तर पर अधिकारियों की ढिलाई और मिलावट कैमरों की उपयोगिता पर बड़ा सवाल खड़ा कर रही है।
सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने 2018 और 2020 में स्पष्ट आदेश दिए थे कि थानों के सभी हिस्सों में कैमरे लगाना अनिवार्य है, ताकि मानवाधिकारों का उल्लंघन रोका जा सके। लेकिन अब स्थिति यह है कि आम जनता के हक की अनदेखी और फुटेज की उपलब्धता में बाधा बन रही है। राजस्थान पुलिस और राज्य सरकार को यह तय करना होगा कि अगर फुटेज आम जनता और जांच के लिए उपलब्ध नहीं कराया जा सकता, तो थानों में लगे सीसीटीवी कैमरे हटाना ही बेहतर विकल्प है। वरना यह करोड़ों की जनता की संपत्ति पर बेकार खर्च बनकर रह जाएगा। कोर्ट को भी यह देखना होगा कि उनके पुराने आदेश ही नहीं माने जा रहे हैं तो नए आदेशों का आखिर क्या हश्र होने वाला है यह चिंतनीय विषय है।
जन प्रतिनिधि साबित हुए नाकारा
इस मुद्दे पर हमारे जन प्रतिनधि नाकारा साबित हुए हैं। उन्होंने कभी इस मुद्दे पर जनता के साथ खड़े होना ठीक नहीं समझा। थानों में प्रताड़ना व हत्या के आरोप लगते हैं, हंगामा होता है मगर जन प्रतिनिधि सीसीटीवी खुद कभी नहीं मांगते । वे किससे डरते हैं या फिर वे खुद किसी सिस्टम को फॉलो करते हैं यह जांच का विषय है।
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