डिस्क्लेमर
यह संपादकीय किसी विशेष शहर, विद्यालय या संस्था का नाम लिए बिना लिखा जा रहा है। यदि वर्णित परिस्थितियां किसी स्थान या घटनाक्रम से मेल खाती प्रतीत हों, तो इसे मात्र एक संयोग माना जाए। अगर आप समझदार हैं तो आस पास नजर घुमाइये आपको तस्वीर भी साफ हो जाएगी और नाम भी। भगवान यीशू क्रिसमस के अवसर पर सबको सद्दबुद्धि दे। आप चाहें तो नारेबाजी भी कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान में रहना होगा, तो जयश्रीराम कहना होगा। या चाहें तो सुंदरकांड पाठ, हवन कर सकते हैं। आपकी आस्था है आप जानें। लेकिन उसका कोई ना कोई पॉलिटिकल कनेक्शन जरूर होना चाहिए।
कॉरपोरट कल्चर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कि आप कितने योग्य हैं, कितने बरसों की तपस्या करते हुए संस्था के लिए खुद को खपाया है। बेरहम कॉरपोरट्स में यह सब नहीं चलता। यहां पर आप दागी भी हैं, चरित्र से गिरे हुए भी हैं और अगर संस्थान के काम के हैं तो आप पूजनीय, वंदनीय हैं। और आपको अलग अलग माध्यमों से लुभाने के लिए अलग अलग तरीके से तमगे और सम्मान भेंट कर गौरवान्वित महसूस करवाने का भी इंतजाम है।
जिनको शिक्षा का मंदिर नहीं अपना धंधा चलाना है वे तो दो काले कोट वाले दाएं—बाएं बिठा कर बिकाऊ मीडिया को बुलाकर अपनी बात दबंगई से रखते नजर आते हैं। झूठ भी इतनी सफाई से बोलते हैं कि चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखता, हां बॉडी लेंग्वेज जरूरी गवाही दे देती है।
शिक्षा का मंदिर बन गया या कॉरपोरेट का दफ्तर?
निजी पढ़ाई वाले संस्थान सेवा, संस्कार और अनुशासन की बात कर रहे हैंं। मंचों पर और प्रेस से मुखातिब होते हुए संविधान, नियमों और मूल्यों की बातें कर रहे हैं, जो उनके चेहरे पर सूट ही नहीं कर रहा है। मुंह में राम तो नहीं है मगर बगल में छुरी जरूर रखते हैं ये लोग।
प्रेस के सामने कॉरपोरेट के शब्दों का इससे ज्यादा तमाशा और गिरावट का नमूना अब से पहले नहीं देखा गया। हर फैसला विधि सम्मत लगे इसकी जिद मानों सिर पर खून सवार जैसी। मगर सवाल यह है कि क्या हर फैसला नैतिकता के पैमाने पर खरा है या नहीं? और क्या हर प्रशासनिक कार्रवाई मानवीय संवेदना से भी गुजरती है या नहीं?
लंबे समय से अपनी शिक्षा का लोहा मनवाने वालों से आप उम्मीद कर रहे हैं कि अब वे सड़क पर बैठ कर लोहा पीटे तो यह तो मुमकिन नहीं लगता है।
जब 40–45 साल की सेवा बोझ बन जाए
नौकरियों का कड़वा सच यह यह देखा कि जैसे ही कोई कर्मचारी अनुभव के साथ “महंगा” होने लगता है, वैसे ही उस पर अनुशासन, कार्यकुशलता और शिकायतों की फाइलें मोटी होने लगती हैं। जिन शिक्षकों ने चार दशक तक पीढ़ियां गढ़ीं, वही अचानक दागी बताकर भगाने की कोशिशें होती हैं।
सवाल उठता है—यदि दो दशकों से शिकायतें थीं, तो वे शिकायतें अब तक हां पर दबी हुई थी?? जब कर्मचारी सफलता की सीढ़ियों पर मैनेमेंट को अपने कंधों पर बिठा कर नए शिखरों तक पहुंचा रहा था तब आप कहां थे?
तब तो आप एप्रिसिएशन दे रहे थे, तब तो आप नाज कर रहे थे, और आप ही सूबे के सबसे बड़े नेताजी से सर्टिफिकेट दिलवा रहे थे। अब मोटी तनख्वाह देख कॉरपोरेट औंधे मुंह गिर गया है।
वे शिक्षा का रखवाले जो संस्थान की शान हुआ करते थे वे अचानक नफरत के पात्र हो गए। इतनी नफरत कि आप अपने मीडिया के गिद्दभोज में उनके लिए बोलते समय शालीनता की सीमाएं तक लांघ जाते हैं।
कौन ध्यान रखता है इतना कि कौन किस वाहन से आ—जा रहा है। मगर बॉस की आंखों में ये सब खटकने लगता है, तब जब तनख्वाह बढ़ी हुई नजर आती है जिसमें वे एक कर्मचारी के बदले पांच रख सकते हैं।
भाई, अब तो दुकान खुल गई है ज्ञान की। ज्ञान मिष्ठान भंडार जहां से मर्जी हो तो जलेबी खरोदा, ना हो तो दूसरी दुकान पर चले जाओ।
इस उम्र में अब खाओगे धोखे, डर लगता है इश्क करने में जी
संस्थान में काम से इश्क करने वालों के लिए यह सबक है कि उम्र ज्यों ज्यों बढ़ती जाएगी। नौकरी के इस इश्क का रिस्क भी बढ़ता जाएगा।
अब तो हालात ये दिख रहे हैं कि जिनके रिटायमेंट में केवल दो से तीन साल बचते हैं उनकी नौकरी के एनकाउंटर के चांस सबसे ज्यादा दिखाई देते हैं। आप काम करो तो कहेंगे काम कम कर रहे हैं। ज्यादा करो तो कहेंगे गलत कर रहे हैं।
वर्क टू रूल करोगे तो कहंगे आप इस परिवार का सदस्य हो, हमें ग्रोथ चाहिए किसी भी हालत में, इतना कम काम नहीं चलेगा।
कॉरपोरेट शिक्षा के धंधे में हर पाठ अनैतिकता से ही शुरू होता है, वहीं से खत्म भी हो जाता है। इन सबके बीच शिक्षा को अपनी हथियार बनाकर बाजार में निकाले गुरूजी को ना उनके इथिक्स बचा पाते हैं ना बरसों की मेहनत।
अपने चहेते गिद्द बुलाकर कर लिया गिद्दभोज
हाल के घटनाक्रमों में यह भी देखा गया कि कुछ गिने-चुने, “परिचित” खबर वाले गिद्दों को बुलाकर एकतरफा पक्ष रखा गया। हमारा ही मंच, हमारा ही जलवा।
मंच पर काले रंग के कोट वालों के पीछे छिप कर कुछ लोग ऐसे इतराए मानों खुद के उड़े हुए रंगों को ढंकने का प्रयास किया जा रहा हो। हर शब्द ऐसा जैसे आरा मशीन से चीर कर लाया गया हो, जुबां इतनी लंबी, तेज और गिरी हुई कि शब्द खुद शर्मसार हो रहे।
इस गिद्दभोज में जो बुलाए गए वे भी पहले से तैयार होकर आए थे कि हमें कोई सवाल नहीं पूछना है, और जैसा काले कोट में लिपटा हुआ आला कमान ने बताया है बस वहीं सुनना, वही लिखना है।
कहा जा रहा है कि निर्देश था—जमकर नाश्ता करके आना, दिमाग घर पर रख कर जाना।
ये भीगी बिल्ली हैं, आपने शेर की खाल वाली लोमड़ी की कहानी सुनी ही होगी
आज जो शेर की तरह दहाड़ रहे हैं वे कैमरे सामने कभी भीगी बिल्ली बन गए थे। कांप रहे थे। वह दृश्य आज भी डिजिटल दुनिया में खूब नाम कमा रहा है।
सत्ता और परिस्थितियों ने जो हाल बेहाल किया था तब के मंजर भी सबको याद हैं। मंजर हमेशा याद रहेंगे कि कोई इतना डरपोक है कि जिन पर उंगली उठानी होती है उन पर नहीं उठाता, उन पर उठाता जिनकी उंगलियां पकड़ कर चलना सीखा है।
बड़ा सवाल??
क्या किसी इंसान को अपनी जिंदगी किसी प्राइवेट संस्थान को देनी भी चाहिए या नहीं?? क्या उसे संस्थान में निष्ठा के साथ अपने पूरी जीवन को दांव पर लगाते हुए काम करना चाहिया या नहीं??
क्योंकि अंत में हश्र तो यही होना है कि आपकी करी कराई मेहनत को एक दिन कोई मीडिया में गिद्दभोज करके उड़ा देगा। कहीं कोई आपको गेटआउट का फरमान सुना देगा, आप ऊंट पर भी बैठे होंगेे तब भी मैनेजमेंट का कुत्ता आकर आपको काट लेगा।
इसलिए संभल जाइये, सतर्क रहिये। इशारों में कही गई बात को डीकोड करने का हुनर सीखिये। आस पास देखिये, कहीं आज कल कुछ हम जो कह रहे हैं ऐसा तो कुछ नहीं घटा है???

