24 न्यूज अपडेट, उदयपुर। जोधपुर की तंग गलियों से निकलकर उर्दू साहित्य के फ़लक पर चमकने वाले शीन काफ़ निज़ाम ने 2025 में पद्मश्री पुरस्कार हासिल कर न सिर्फ़ जोधपुर, बल्कि पूरे हिंदुस्तान का मान बढ़ाया है। 26 जनवरी 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उनकी अदबी खिदमात और गंगा-जमुनी तहज़ीब को बढ़ावा देने के लिए उन्हें इस एज़ाज़ से नवाज़ा। यह पुरस्कार न केवल उनकी शायरी और साहित्यिक योगदान की तस्दीक है, बल्कि उस तहज़ीबी रवायत की भी मिसाल है, जो हिंदुस्तान की रूह में बस्ती है।
शीन काफ़ निज़ाम, जिनका असली नाम शिव किशन बिस्सा है, एक पुष्करणा ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए। उनकी तालीम संस्कृत से शुरू हुई, मगर उर्दू की नफ़ासत और फ़ारसी की गहराई ने उन्हें अपनी ओर खींच लिया। 17 साल की उम्र में उन्होंने “शीन काफ़” को अपना तख़ल्लुस बनाया और “निज़ाम” को जोड़ा, जो उनकी शायराना शख्सियत का परचम बन गया। उनकी शायरी में ज़िंदगी की सादगी, इंसानी जज़्बात की गहराई, और हिंदुस्तानी तहज़ीब की खुशबू बस्ती है। उनकी ग़ज़लें और नज़्में न सिर्फ़ उर्दू अदब की ज़ीनत हैं, बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब की ज़िंदा तस्वीर भी पेश करती हैं।
पद्मश्री की घोषणा के बाद निज़ाम साहब ने कहा, “हर आदमी को अपना काम करते रहना चाहिए। साहित्य एक होता है, जिसे हम अलग-अलग ज़बानों में लिखते हैं। मैं यह नहीं मानता कि उर्दू किसी मज़हब की ज़बान है।” उनकी यह बात गंगा-जमुनी तहज़ीब की रूह को बयान करती है, जहाँ हिंदू-मुस्लिम एकता और साझा विरासत की मिठास बस्ती है। जोधपुर की गलियों में जन्मे इस शायर ने न सिर्फ़ उर्दू को नई बुलंदियों तक पहुँचाया, बल्कि संस्कृत और हिंदी की जड़ों को भी सींचा।
निज़ाम साहब की शायरी में गंगा-जमुनी तहज़ीब की झलक साफ़ दिखती है। उनकी ग़ज़ल “पुरखों से जो मिली है वो दौलत” में वे तहज़ीबी विरासत को बचाने की बात करते हैं, जो आज के दौर में और भी ज़रूरी हो जाती है। उनकी रचनाएँ हिंदुस्तान की साझा संस्कृति का आलम हैं, जहाँ उर्दू के अल्फ़ाज़ हिंदी, संस्कृत, और राजस्थानी रवायात के साथ मिलकर एक अनोखा समां बांधते हैं।
उनके इस एज़ाज़ पर राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने ट्वीट किया, “शीन काफ़ निज़ाम जी को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किए जाने पर हार्दिक बधाई।” जोधपुर के साहित्यकारों और पुष्करणा समाज में भी ख़ुशी की लहर दौड़ गई। अखिल भारतीय पुष्टिकर सेवा परिषद के महामंत्री अमरचंद पुरोहित ने कहा, “निज़ाम साहब ने साबित किया कि साहित्य की कोई सरहद नहीं होती।”
निज़ाम साहब की शख्सियत सिर्फ़ शायरी तक सीमित नहीं है। उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में अपने लेख पढ़े, जिन्हें साहित्यिक पत्रिकाओं में छापा गया। उनकी किताबों का अनुवाद अंग्रेजी, गुजराती, राजस्थानी, और मराठी में हुआ। 2023 में कतर में उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ा गया। उनकी दोस्ती गुलज़ार और दिलीप कुमार जैसी हस्तियों से रही, जो उनकी साहित्यिक और तहज़ीबी हैसियत को दर्शाती है।
पद्मश्री पुरस्कार ने निज़ाम साहब की उस खिदमत को तस्लीम किया, जो उन्होंने उर्दू अदब और हिंदुस्तानी तहज़ीब के लिए अंजाम दी। उनकी शायरी में उर्दू के अल्फ़ाज़ जैसे “मुहब्बत”, “सफ़र”, “आँसू”, “दामन”, और “मौज-ए-हवा” हिंदुस्तान की साझा विरासत को ज़िंदा करते हैं। उनकी रचनाएँ न सिर्फ़ अदबी दुनिया की शान हैं, बल्कि उन नौजवानों के लिए भी मशाल हैं, जो साहित्य और तहज़ीब की राह पर चलना चाहते हैं।
आज, जब दुनिया तंगनज़री और फ़िरकापरस्ती की आग में जल रही है, शीन काफ़ निज़ाम की शायरी और उनकी ज़िंदगी गंगा-जमुनी तहज़ीब की रौशनी बनकर उभरती है। उनके अल्फ़ाज़ दिलों को जोड़ते हैं, और उनका साहित्य हमें याद दिलाता है कि हिंदुस्तान की ताक़त उसकी तहज़ीबी बुनियाद में है। पद्मश्री का यह एज़ाज़ न सिर्फ़ निज़ाम साहब की शख्सियत का ताज है, बल्कि उस तहज़ीबी गंगा का भी इकरार है, जो हिंदुस्तान की रगों में दौड़ती है।
शीन काफ़ निज़ाम की कुछ मशहूर नज़्में और ग़ज़लें
शीन काफ़ निज़ाम की शायरी इंसानी जज़्बात, तहज़ीबी रवायात, और ज़िंदगी के नाज़ुक लम्हों को उर्दू की ख़ूबसूरत ज़बान में पेश करती है। उनकी ग़ज़लें और नज़्में गहरे फलसफे, सादगी, और गंगा-जमुनी तहज़ीब की रूह को बयान करती हैं। नीचे उनकी कुछ मशहूर रचनाएँ पेश हैं:
ग़ज़ल: सफ़र में भी सहूलत चाहती है मुहब्बत
सफ़र में भी सहूलत चाहती है मुहब्बत
अब मुरव्वत चाहती है मुहब्बत
आँसू मिरे तो मेरे ही दामन में आए थे
आकाश कैसे इतने सितारों से भर गया
ग़ज़ल: मौज-ए-हवा तो अब के अजब काम कर गई
मौज-ए-हवा तो अब के अजब काम कर गई
ख़ामोशियों को मेरे सदा-ए-शाम कर गई
अपनी पहचान भीड़ में खो कर
ख़ुद को कमरों में ढूँढ़ते हैं लोग
ग़ज़ल: पुरखों से जो मिली है वो दौलत
पुरखों से जो मिली है वो दौलत भी ले न जाए
ज़ालिम हवा-ए-शहर है इज़्ज़त भी ले न जाए
आदिल है उस के अद्ल पर हम को यक़ीन है
लेकिन वो ज़ुल्म सहने की हिम्मत भी ले न जाए
दिलीप कुमार ने जोधपुर में एक सिनेमा हॉल के उद्घाटन के लिए शर्त रखी थी कि वे तभी आएंगे…….
निज़ाम साहब ने अपनी शिक्षा पूरी की और विज्ञान के विद्यार्थी रहे। बाद में वे बिजली विभाग में नौकरी से जुड़े और सेवानिवृत्त हुए। लेकिन उनकी असल पहचान उर्दू साहित्य में एक शायर, आलोचक, और साहित्यिक विद्वान के तौर पर बनी। उन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़लें और नज़्में लिखीं, बल्कि कई किताबों का संपादन भी किया, जिनमें दीवान-ए-ग़ालिब और दीवान-ए-मीर शामिल हैं। उनकी मशहूर किताबों में लम्हों की सलीब, नाद, दश्त में दरिया, साया कोई लंबा नहीं था, सायों के साये में, और गुमशुदा दैर की गूंजती घंटियाँ शामिल हैं।
उन्होंने राजस्थानी उर्दू शायर मखमूर सईदी की जीवनी भीड़ में अकेला और विद्वान आलम कालिदास गुप्ता रिज़ा पर ग़ालिबियत और गुप्ता रिज़ा जैसी किताबें भी संपादित कीं। उनकी शायरी और लेखन ने उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ख्याति दिलाई। 2010 में उनकी किताब गुमशुदा दैर की गूंजती घंटियाँ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अलावा, उन्हें राष्ट्रीय इकबाल सम्मान (2006-07), भाषा भारती सम्मान, बेगम अख्तर ग़ज़ल अवार्ड, और 2023 में राजस्थान उर्दू अकादमी की फैलोशिप जैसे कई पुरस्कार मिले।
निज़ाम साहब की शख्सियत गंगा-जमुनी तहज़ीब की जीती-जागती मिसाल है। संस्कृत में प्रारंभिक शिक्षा और उर्दू में शायरी की महारत ने उन्हें एक अनोखा साहित्यकार बनाया। उनकी दोस्ती मशहूर साहित्यकार गुलज़ार और अभिनेता दिलीप कुमार जैसे शख्सियतों से रही। एक बार दिलीप कुमार ने जोधपुर में एक सिनेमा हॉल के उद्घाटन के लिए शर्त रखी थी कि वे तभी आएंगे, जब निज़ाम साहब मौजूद होंगे।
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