24 News Update उदयपुर। लगता है शहर को अब नया उत्सव मिल गया है – गड्ढा महोत्सव। जिस तरह हर बरस शिल्पग्राम और मेवाड़ महोत्सव होते हैं, उसी तरह सड़कों के बीचोंबीच बने गड्ढे और सीवरेज की खुदी लाइनें भी अब अपना वार्षिक मेला लगाने लगी हैं। गड्ढा बोलता है हर बार……दिल बहलता है मेरा, आपके आ जाने से…….। आपको गिरना मेरा सौभाग्य है। आपका स्पर्श पाकर मैं हर बार गौरवान्वित होता हूं….। और अब तो जनता ही केक काटकर इन्हें जीवित रखने की रस्म निभा रही है। ठेकेदार और टेबल के नीचे से रोकड़े कमाने वाले कह रहे हैं – तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों 50 हजार।
लेकसिटी में मनवाखेड़ा इलाके में आज सड़क के गड्ढे का पहला जन्मदिन मनाया गया, वो भी केक काट कर। ताज्जुब है, गड्ढा बिना इलाज और देखभाल के पूरे साल इतना हेल्दी कैसे रह पाया?
अब तो लोग कह रहे हैं कि “यह गड्ढा गोल्डन जुबली तक जाएगा, क्योंकि नगर निगम और स्मार्ट सिटी के अफसर इसे मिटाने तो किसी भी हालत में नहीं देने वाले हैं। यहां केक कटेगा, वहां पर महाप्रसाद बंटेगा। महाप्रसाद का मतलब तो आप समझ ही गए होंगे, इतने तो भोले आप भी नहीं होंगे।”
बहरहाल, सीवरेज लाइन डालने के बाद जो हाल शहर के हुए हैं उसका तो कहना ही क्या। ऐसे-ऐसे गड्ढों की सौगात शहर को मिली कि हम धन्य हो गए। दोपहिया वाले स्टंट करना सीख गए, चारपहिया वाले सड़क पर ही लाइफ का बैलेंसिंग एक्ट सीख गए तो पैदल चलने वाले सुंदर गड्ढों की चरण-धूल को मन में बसा कर उनकी नित्यप्रति पूजा करना सीख गए। गड्ढों ने सबको कुछ न कुछ तो सिखा ही दिया। अब इसको स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर ही लेना चाहिए। इस पर मीम बनाने, कविताएं लिखने का काम शुरू हो जाना चाहिए। नगर निकायों में गड्ढा भरने, नई सड़क बनाने की अर्जियां देने से कागज और समय की जो बर्बादी होती है, उससे तो कहीं अच्छा है कि पूरा शहर ही सीवरेज ढक्कन और गड्ढा चिंतन को ही अपने दैनिक जीवन में शामिल कर लें। प्रेमी भी प्रेमिका से कहने लगे कि “तुम्हारे मोहल्ले के गड्ढे की कसम खाकर कहता हूं कि हमारा प्रेम भी उसी तरह अजर-अमर रहेगा।”
गड्ढों को भरने के लिए सीसी रोड बनाने का नाटक जो ठेकेदार ने खेला वह भी गजब था। झटपट गड्ढा भरा, थोड़ी सी सीमेंट ऊपर से लीपापोती स्टाइल में बिछाई और बन गई बात। इसके बाद एक ही बारिश में सड़क की किस्मत भी गड्ढे जैसी ही हो गई। न मिट्टी की मजबूत भराई, न मानकों का कोई खयाल। जब ठेकेदार के सिर पर रोकड़ों का रोमांच सवार हो तो फिर वो हम आम जनता को गांठें ही क्यों?? उस पर भी अगर नेताओं का सपोर्ट हो, अफसरों की बोलती बंद हो और शिकायत करने का हर तंत्र घूम-फिर कर आपको ही निशाना बनाने पर आतुर हो तो फिर तो कहने ही क्या?? मजे की बात है कि शहर में सीवरेज की सताई कुछ सड़कों को ठीक करवाने के सभी प्रयासों के विफल हो जाने के बाद लोगों ने कई कार्यक्रमों में विधायक व सांसद तक को बुला लिया। वे भी गड्ढे पर गंभीर चिंतन कर घावों पर आश्वासनों का नमक छिड़क गए मगर हुआ कुछ भी नहीं।
अब तो सड़क से ही रिक्वेस्ट करना बचा है कि “तुम खुद से ही धराशायी होकर गड्ढे में तब्दील हो जाओ, तब जाकर कुछ होगा।” या फिर तब अपना रूप दिखाओ जब कोई बड़ा आदमी वहां से गुजर रहा हो। बड़ा आदमी कीचड़ से लथपथ होगा तो मरा हुआ सिस्टम जरूर उठ खड़ा होगा।
मोहल्लों के मोहल्ले, गलियों की गलियां, सब तरफ एक ही बात होती है कि “सीवरेज लाइन खुद गई, भरेगी कब?” यह समस्या केवल उदयपुर की ही नहीं है, कई शहरों में यही हो रहा है। कल डूंगरपुर में नगर परिषद की बैठक में हंगामा हुआ था इसी मुद्दे को लेकर।
अब क्या कहें,,,,,मोटे ठेकेदार, मोटी एप्रोच, मोटा कमीशन, मोटे वादे और अंत में गड्ढों का मोटा व मालदार ठेंगा। कुछ गड्ढे तो इतने कायदे के हो गए हैं कि बरसों-बरस सोने के कलदार उगल रहे हैं।
अब तो पानी बरसता है तो गड्ढा तालाब बनकर स्विमिंग पूल का सुख देता है। बरसात रुकती है तो धूल के गुबार फेफड़ों की परीक्षा लेने पर उतारू हो जाते हैं। ऐसी परीक्षा जिसका पेपर पहले से लीक किया जा चुका है। जिस तरह भ्रष्टाचार की परंपरा अजर-अमर है, उसी तरह यह गड्ढा बिजनेस भी अजर-अमर ही रहेगा, ऐसी उम्मीद करना जरूरी हो गया है।
अब सवाल यह है कि क्या प्रशासन के पास एक भी ऐसा मामला नहीं पहुंचा जिसमें सड़क ऊंची करने या गड्ढा छोड़ देने से लोगों को परेशानी हुई हो? या फिर सब शिकायतों को अंधेरे गहरे प्रशासनिक खोह में ही दफन कर दिया गया है???
जो लोग स्मार्ट हैं, अपना सफल राजनीतिक भविष्य बनाने के सपने देख रहे हैं उनके लिए ये आइडिया स्टार्टअप का काम कर सकता है। उठो, जागो और गड्ढा-ढक्कन पार्टी बनाकर लोगों की भावनाओं को कैश करो। हो सकता है अगले चुनाव में अप्रत्याशित जीत हासिल हो जाए। तब तक हैप्पी बर्थडे के सॉन्ग गुनगुनाते रहिए और ‘‘जोकर-टोपी’’ पहन कर मुस्कुराते रहिए।

