
रेडियो—एक ऐसा साथी, जिसने न जाने कितनी पीढ़ियों की यादों में अपनी अमिट छाप छोड़ी। वो भी क्या दिन थे, जब रेडियो हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करता था!
जब हम बिनाका गीतमाला के हर नए अंक का बेसब्री से इंतज़ार करते थे, और जब हमारा पसंदीदा गीत पहली पायदान पर आता, तो खुशी से झूम उठते थे। कानों से रेडियो सटाकर क्रिकेट की कमेंट्री सुनना, सुनील गावस्कर का चौका लगते ही उछल पड़ना—ऐसा लगता था मानो हम खुद मैदान में मौजूद हों। वो उत्तेजना, वो रोमांच, अब कहीं खो सा गया है।
रात 9 बजे जब रेडियो पर गंभीर और प्रभावशाली आवाज़ गूंजती—
“यह आकाशवाणी है। अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए।”
तो पूरा परिवार रेडियो के पास सिमट जाता। 15 अगस्त हो या 26 जनवरी, आकाशवाणी की कमेंट्री हमें झंकृत कर देती थी।
रेडियो सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं था, यह संस्कृति का प्रतीक था।
गानों का माधुर्य
समाचारों की सटीकता
चुनावों के लाइव अपडेट
खेल की रोमांचक कमेंट्री
यह सब एक छोटे से डिब्बे में समाया था। पान की दुकानों पर रेडियो की आवाज़ के साथ जुटी भीड़, मानो कोई उत्सव चल रहा हो। मर्फी, फिलिप्स, बुश के वाल्व वाले रेडियो… वो आवाज़ दिलों को छू जाती थी।
आज हमारे पास अत्याधुनिक म्यूजिक सिस्टम हैं, हाई-फाई साउंड क्वालिटी है, लेकिन वो माधुर्य, वो आत्मीयता, वो जुड़ाव नहीं है। रेडियो की महक आज भी हमारी यादों में जिंदा है, उसकी धुन आज भी कानों में गूंजती है।
विश्व रेडियो दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ!
आइए, इस अवसर पर अपने पुराने दिनों को याद करें और रेडियो के प्रति अपने स्नेह को फिर से जागृत करें।
“कुछ आवाज़ें होती नहीं, लेकिन दिल से कभी जाती नहीं!” 🎙️📻
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